Book Title: Jain_Satyaprakash 1954 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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भोजपुरका जैन मन्दिर लेखक : पूज्य मुनिराज श्रीकान्तिसागरजी, ग्वालियर आर्योंका प्रकृतिप्रेम विख्यात रहा है। उसके द्वारा सौंदर्यानुभूतिजनित आनन्दसे मानव उत्प्रेरित होता आया है । कलाका जन्म भौतिक आवश्यकताओंमें होता है । रसज्ञ उसे आत्मस्थ सौंदर्यका उद्बोधक मानता है । बाह्य प्रेरणाप्रद निमित्तसे अन्तरंगके अमूर्त भावोंको अतुलनीय बल मिलता है। भारतीय कलाके पीछे एक निश्चित प्रेरणाशील और ऊर्जस्वल विचारकी सुदृढ परम्परा सन्निहित है। मानवकी सामूहिक वृत्ति धर्ममें केन्द्रित होनेके कारण, कलाका विकास धर्मके द्वारा ही हुआ है । मन्दिर, गुफाएं, प्रतिमाएं आदि भावमूलक शिल्पकृतियां उसीकी परिणति हैं । जब संस्कृति, कलाके द्वारा प्रकृतिकी मनोरम गोदमें अपनी अपनी अस्मिताको मूर्त करती है तब उसके सौंदर्य प्रदर्शनकी क्षमता तो वृद्धिंगत होती ही है, साथ ही उसका सुकुमार भावप्रेरक आनन्द भी द्विगुणित होकर अतीन्द्रिय सिद्ध हो जाता है । वास्तवमें साधक अपनी चिर साधना नीरव स्थानमें ही कर, साध्य तक पहुंच सकता है।
प्रकृति उसके लिये महती प्रेरणाको स्रोतस्विनी है । वह सात्त्विक वृत्तियोंकी ओर सूक्ष्म संकेत भी करती है । ऐसे नैसर्गिक स्थानोंमें व्यक्ति सांसारिक वृत्तिको विस्मृत कर अन्तर्मुखी चित्तवृत्तिमें तन्मय हो जाती है जो जीवनका चरमोत्कर्ष है । वाणीका गंभीर मौन साधककी अन्तश्चेतनाको जागृत कर, स्फूर्तिप्रद व आत्मबलवर्द्धक शक्तियोंका सूत्रपात करता है। वही मानवताकी सुदृढ़ आधार शिला है । भारतीय अध्यात्मवादको उत्प्रेरक भावना प्रारंभ कालसे ही समाजमूलक रही है।
सीमित आवश्यकताओंमें जिन दिनों सांसारिक वृत्ति व्याप्त थी, उन दिनों सापेक्षतः जीवन शान्तिमय था किन्तु केवल आवश्यकताओंको ही साध्य मान कर जबसे मनुष्यने जीवनदान प्रारंभ किया है तबसे आन्तरिक शान्तिका लोप ही नहीं अपितु आध्यात्मिक प्रेरणाके स्थानसे भी च्युत हुए जा रहा है । वैचारिक परम्पराका अनुभवजन्य ज्ञान अन्तर्मानसमें तब ही उदित होता है जब कभी प्राचीन खंडहर या गिरिकंदराओंमें बिखरी हुई या ध्वस्त कलात्मक संस्कृत्तिके बीच खडे होते हैं। वहां विगत वंदनीय विभूतियोंका मधुर स्मरण होता है। मेरे मुनिजीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटी हैं जिनसे हृदय पर बहुत ही आघात लगा और प्रतीत हुआ कि आजके सर्व साधनसंपन्न युगमें जितना राजनैतिक दासत्व स्वीकार किया उससे हमारी पार म्पिरिक व चिरपोषित कलात्मक वृत्ति एवं रसज्ञताको निष्कासन मिला । आश्चर्य इस बातका है कि जो भावमूलक अंतश्चेतना किसी समय पूर्व पुरुषोंके दैनिक जीवनमें साकार थी वही आज हमारे जीवनसे दिनानुदिन विलुप्त हुई जा रही है, कारण कि हम प्रत्येक वस्तुको
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