Book Title: Jain_Satyaprakash 1954 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 21
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४ : १] ભેજપુરકા જૈન મંદિર [१८ लाखों व्यक्तियोंका साधना, सौन्दर्य और श्रद्धा स्थान सुनिर्मित है। सचमुच कलाकारोंने इसे खूब चुना है। मीलों तकका भूभाग पहाड़ियोंसे परिवेष्टित है। शस्यश्यामला खेतकी पृथ्वी किसी समय मानसका उन्नयन करती थी किन्तु आज वह हृदयको अतीतको उर्जस्वल रेखाओंमें समेट लेती है। भावावेश और ज्ञानचेतनाका संचित पुंज प्रवाहित होने लगता है। प्राकृतिक दृश्य वाणीका मौन सहन नहीं कर सकता। भावनाका झरना कविताके रूपमें फूट पड़ता है । उद्दीपित रसवृत्ति खण्डित पत्थरोंमें चिरसंचित मानवताकी अनुभूति प्राप्त करती है। उत्तर भारतका सोमनाथ-चट्टान पर चढ़ते ही छोटी मोटो समाधियों पर दृष्टि केन्द्रित होता है, जो विगत महन्तोंकी बताई जाती है। समाधियों की परिधि व भव्य जगती (नींवके ऊपरका भाग)को देखकर मन्दिरको विशालताका आभास होता है। मन्दिरके ऊर्व स्थानमें जानेके दाहिनी ओर सती स्मारक और बांई ओर कथित समाधियां हैं । जो सीढ़ियां उपर जानेकी हैं वे अर्वाचीन हैं। ऊपर जाने पर दर्शकके हृदय पर कोई विशेष प्रभाव डाल सके वैसा कुछ भी आकर्षण नहीं है। दोनों ओर अत्यन्त जर्जरित दीवालें और दालानें आधुनिक ढंगकी बना दी गई है, तथा मध्यमें सामान्य दो मन्दिर कतिपय प्राचीन अवशेषोंको लेकर किये हैं । भोजपुरकी पर्याप्त स्थिति सुननेके पश्चात् कल्पनाशील कलाकारके मन पर जैसा प्रथम प्रभाव पड़ना चाहिए, इन अर्वाचीन मन्दिरोंसे नहीं पड़ पाता। ये मन्दिर शंकर मन्दिरके सभामण्डप (प्रांगण में बने हैं। इनके पृष्ठ भागमें अत्यन्त विशाल कलापूर्ण और भव्य प्रासादके अवशेष हैं । इसकी रचनाशैली, विशालता, सूक्ष्मकोरणी (पच्चीसकारी) देखकर सहसा मुखसे निकल पड़ता है कि सचमुच वह उत्तरभारतका सोमनाथ है। सोमनाथमें समुद्रका गर्जन गाम्भीर्य है तो भोजपुरमें वेत्रवतीका स्निग्ध माधुर्य । मध्यभारतका भगवान भूतनाथका भव्य भवन, भारतीय शिल्पभास्कर्य और मूर्तिकलाका उत्तुंग प्रासाद, उत्कृष्ट स्थापत्यका चिरस्मरणीय साधना-निकेतन। जैन मन्दिर भोजपुरकी वास्तविक प्रसिद्धि प्रस्तुत शैव मंदिरको लेकर ही है। पर बहुत कम लोग जानते हैं कि यहां जैन मन्दिर भी है। महाकोसल और विंध्यप्रदेशमें जिस प्रकार शैव संस्कृतिका प्राधान्य है उसी प्रकार जैन संस्कृतिका भी प्राचुर्य है। तत्सन्निकटवर्ती मालवभूमि भी जन संस्कृतिकी केन्द्रस्थली रही है। मौर्यकालसे लगा कर आजतक यहां जैनोंका बोलबाला रहा है। भोपाल राज्यके पुरातत्त्व पर अद्यावधि समुचित प्रकाश नहीं डाला गया है, केवल सांची और उदयगिरि ही प्रसिद्ध स्थानोंमें गिने जाते रहे हैं। पाठकोंको आश्चर्य होगा कि पुरातन जैन अवशेष और मूर्तिकलाकी उत्कृष्ट सामग्री भोपालके खंडहरोंमें अन्वेषकों की प्रतीक्षा कर रही है । मध्यकालीन जैन मूर्तिकलाकी ऐसी महत्त्वपूर्ण कलात्मक संपत्ति इस भू-भागमें For Private And Personal Use Only

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