Book Title: Jain_Satyaprakash 1943 12
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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“ક્યતાક વિચાર भक देवत्व और गुरुत्वको बताया सो ठीक ही किया है, क्योंकि इनके निक्षेप पूज्य ही हैं, पूज्य मही हैं ऐसा कौन कहता है? अगर कहो कि सरिजीने ही तीर्थकरके चारों निक्षेप पूज्य है और साधुका भाष निक्षेप ही बंध है-ऐसा कहा है तो उसका मतलब नहीं समझे हो ऐसा ही कहना होगा। और इसीसे सूरिजीके कथनको सफेद झूठ कह रहे हो। तीर्थकर तो तीर्थकर भामकर्मके प्रभाषसे बंध होते हैं । तीर्थकर नामकर्मकी व्याख्या ही पेसी है इस लिए जन्मसे ही वे पूज्य है । अतः जन्मादि मरणान्त स्थायि उन तीर्थंकरोंका द्रव्य निक्षेप भी पूज्य और वंदनीय है। इस मतलबसे तीर्थकरोंके चारों निक्षेप पूज्य कहे गये हैं. परन्तु साधुकी आत्मा मात्र पूज्य नहीं किन्तु साधुत्व पर्यायापन आत्मस्वरूप ही पूज्य है इस मतलबसे साधुका भाव निक्षेप ही वंच है ऐसा कहा गया है। इससे साधुका जन्म मरण ग्यापि द्रव्य निक्षेप ही अबंध सिद्ध होता है, न तु साधुत्व पर्यायापन द्रव्यादिक। इसीसे हीरविजयसरि आदिकी मूर्ति पूजी जाती है। लोगस्सके. बारेमें नहीं कहा था उसमें क्या प्रमाण हैं । पेसा सरिजीके वचनको लेकर कहते हो कि 'यह तो निश्चय हो गया कि सूरिजीके पास इसकी मान्यता (को)-पुष्ट करनेवाला कोई प्रमाण नहीं, हमसे निषेधक प्रमाण मांगते है परंतु मैंने पहिले ही प्रमाण दे दिया है, सरिजीने नहीं देखा होगा' पेसा नो लिखते हो यह तो तुम्हारे ही गले पड गया, क्योंकि सरिनीने अपने पक्षका साधक-प्रमाण बहुत विस्तारसे दर्शाया है, जिसको नहीं देखते हुए माहक नमताको भ्रममें डालनेके लिये पेसा लिखते हो।
मो लोगस्सका पाठ है वो ही प्रथम जिनेश्वराश्रित संघ में कहा जाता था, इस विषयमें प्रमाण है। यह स्तुति मोक्षप्राप्त जिनेश्वरोंकी है भब. भ्रमणमें भटकते हुए मीवोंकी नहीं'। और लोगासका चविंशतिस्तबमाम भी प्रभु महावीरके शासनमें ही हुवा है पहिले नहीं था' ये दोनों बचन परस्पर विरुद्ध है, क्योकि जिस बख्त महावीरने तीर्थ स्थापित किया उस बख्त महावीर तो मोक्षप्राप्त नहीं थे तो उस बख्त भी लोगस्सका पाठ नहीं रहा होगा और चतुर्विशविस्तव नाम नहीं पडा होगा। यदि करते थे और नाम :पडा था ऐसा कहोगे तो यह स्तुति मोक्षप्राप्त निनेश्वरोंकी है यह तुम्हारा कथन मिथ्या होगा, यदि मोक्षप्राप्त होने पर लोगस्सका पाठ चला और नाम पडा ऐसा कहोगे तो भी गलत है, क्योंकि महावीर शासनमें तीर्थस्थापनके दिनसे पहावश्यक करना नियत है, और लोगस्सका नाम चउवीसत्थो ही है, क्योंकि सामायिक-चउवीत्थो-बंदणयं-परिकमणं काउसग्गो इसी प्रकार ही आवश्यकके छ अध्ययनके नाम मंदीमें भी कहे गये है-'से किं तं आषस्सय छविहं पन्नतं तं नहा-सामायं १चउवीसत्यो २ बरणयं ३ पडिक्कमणं ४ काउसग्गो ५ पच्चक्खाणं से तं आपस्सयं ।
सेनप्रभमें कहीं पर भी लोगस्सको भद्रबाहुस्वामीने बनाया है ऐसा कहा नहीसमें तो लोगस्स अप्रताप यामीने-मनाया-नही-है-यही सिसकिया
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