Book Title: Jain_Satyaprakash 1942 10
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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શાર્દૂલવિક્રીડિત છન્દ મેં એક પારસી પદ્ય
[૩]
__इस कोश के रचायिता का नाम महं० विक्रमसिंह है जो मदनपाल का पुत्र और ठक्कुर जागज का पौत्र था । जागज तो प्राग्वाट वंश में चन्द्र के समान था । यह बड़ा यशस्वी और धर्मात्मा था। मदनपाल अपनी दयालुता और नीति के लिये प्रसिद्ध था। स्वयं विक्रमसिंह आनन्दसूरि का अनन्य भक्त था। पारसी भाषा का शुद्ध प्रयोग सीख कर विक्रमसिंह ने इस कोश की रचना की। इसका परिमाण ३६० ग्रन्थ है । खेद है कि विक्रमसिंहने अपना या कोश रचने का समय नहीं बतलाया। आनन्दसूरि का उल्लेख भी इस काल-निर्धारण में सहायता नहीं कर सकता, क्योंकि आनन्दसूरि नाम के कई आचार्य हो चुके हैं और इन आनन्दसूरि की गुरुपरम्परा नहीं बनलाई गई। अलबत्ता प्रथम प्रकरण के श्लोक २६ में अणहिल्लपाटक का पारसी पर्याय “निहरवलो" दिया है। इससे अनुमान होता है कि विक्रमसिंह अणहिल्लपाटक या पाटण का रहने वाला था ।" इसके नाम के साथ लगी उपाधि महं० =महंतो (गुजराती में "महेतो") भी इसी बात की सूचक है कि वह गुजराती था।
यह कोश पांच प्रकरणों में विभक्त है। (१) जाति प्रकरण, (२) द्रव्य प्रकरण, (३) गुण प्रकरण, (४) क्रिया प्रकरण और (५) सामान्य प्रकरण जिनमें क्रमसे १११, ६९, १५, ३१ और ३५ श्लोक हैं।
इस प्रकार के पारसी-संस्कृत कोशों की संख्या बहुत अल्प है, अतः प्रस्तुत कोश का बड़ा महत्त्व है। परन्तु आश्चर्य इस बात का है कि जिस प्रकार की भाषा में उपर्युक्त पद्य लिख गया है, वह प्रचलित साहित्यिक फारसी से बहुत भिन्न है। यद्यपि देवनागरी लिपि तथा संस्कृत छन्द में लिखे जाने के (४) कोश के अन्त में प्रशस्ति इस प्रकार हैंइति महं. विक्रमसिंहविरचिते पारसीभाषानुशासने सामान्यप्रकरणं पञ्चमं समाप्तम् ।
प्राग्वाटवंशगगनाङ्गणपूर्णचन्द्रः, सद्धर्मबुद्धिरिह ठकुरजागजोस्ति । तन्नन्दनो मदनपाल इति प्रसिद्धः, सौजन्यनीतिविनयादिगुणैकगेहः ॥१॥ आनन्दसूरिपदपद्मयुगैकभृङ्गस्तत्सूनुरेष ननु विक्रमसिंहनामा ।। आनायशुद्धमवबुध्य स पारसीकभाषानुशासनमिदं रचयांचकार ॥२॥ प्रत्यक्षरगणनातः शतानि त्रीण्यनुष्टुभाम्। षष्ठयधिकानि विज्ञेयं प्रमाणं तस्य निश्चितम् ॥३॥ वसुन्धरा दुनीए स्याद् पत्तनं सहरु स्मृतम् । ग्रामो दिहस्तथा देश उलातु परिकीर्तितः ॥२५॥ तस्मिन् निहरवलो श्रीमदणहिल्लपाटकम् । लोकः कसस्तथा प्रोक्तो बुधखाना सुरालयः ॥२६॥ (प्रकरण २)
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