Book Title: Jain Satyaprakash 1940 04 SrNo 57
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org. Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८] પંજાબમે જૈનધ [ २८१] नपुर (दक्षिण) में उपाश्रय व मन्दिरों के लिये भूमिदान किया। ये सब कार्य सम्राट् अकबरने उ० भानुचन्द्रजी के उपदेश से किये । उपाध्यायजी के उपदेशसे सम्राट् जहांगीरने भी विभिन्न धर्मकार्य किये । उपाध्यायजी से पंजाब को काफी लाभ मिला है, क्यों कि आप लाहोर काश्मीर, रत्नपंजाल और पीरपंजाल में अनेक बार विचरे हैं। आपके उपदेश से लाहोर में तपगच्छ उपाश्रय और भ० श्री शान्तिनाथ का मन्दिर बना। बृहनपुर में भी कंसारावाड में उपाश्रय और १० जिनमन्दिर बने । तपगच्छीय श्रीमान् दूर्जनशैल्य ने लाहोर में व बृहनपुर में जिनमन्दिर बनवाये, शौरिपुर तीर्थ के यात्रा, जीर्णोद्धार और प्रतिष्ठा कराये | आपने ही फलोधी तीर्थ को निरुपद्रव बनाया | उ० भानुचन्द्रजीगणि के पं० सिद्धिचंद्रगणि प्रमुख ८० शिष्य थे। पं. सिद्धिचंद्रजी अतिशय सौन्दर्ययुक्त, तेजस्वी और अष्टावधानी (शतावधानी) थे । इनको सम्राट अकबर पुत्र की तरह चाहता था। जहांगीरने भी 66 'सामन्त का पद देने का प्रयत्न किया था । शाही खानदान में आपका अवश्य वर्चस्व था । सम्राट्ने आपको “ खुशफहम ( सुमति) का खिताब दिया था। आपने कादम्बरी टीका वगैरह कई ग्रन्थ बनाये, पाटण के शास्त्रार्थ में जयदास जपो लाडवाश्रीमाल को अभयदान दिलाया और शत्रुंजय तीर्थ के मूल चैत्य का उपद्रव हटाया । " उपर लिखित प्रमाणों से स्पष्ट है कि-सत्तरहवीं शताब्दी का पंजाब अनेक जैन महर्षिओं की विहारभूमि था और जैनधर्म की हितकारिणी कई घटनाओं का उद्गमन स्थान था । ( देखो, भानुचंद्र चरित्रकाव्यं, सूरीश्वर और सम्राट्, आईनई-अकबरी, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, पृ० ५४९ से ५९६, श्री आत्मानंद जन्म शताब्दी ग्रन्थ भाग ४ था ) लॉकामत (सत्तरहवीं शताब्दी के अंत में)- उ० भानुचंद्रजी गणि और उ० सिद्धिचंद्रगणी के बाद पंजाब में जैन मुनिओं का विहार नहीं हुआ। चिंतामणि पार्श्वनाथ मन्दिर के ग्रन्थभण्डार के कई ग्रन्थों की प्रशस्तिएं, श्रीसुमतिनाथ मन्दिर - नौघरा देहली वगैरह तपगच्छीय मन्दिरों का निर्माण इत्यादि से जान पड़ता है कि कृष्णगढ की गद्दी से कइ यति शाहजहांबाद और शाहजहांपुर वगैरह प्रदेश में आये हैं, और खरतर के यति भी वहां आये हैं । इस समय में लोंकामत के यति और स्थानकमार्गी साधुओ ने पंजाब में प्रवेश किया । १ इसके धर्मकार्यों का विशिष्ट वर्णन कवि कृष्णदास कृत " वुर्जनशाल बावनी " में वर्णित है । For Private And Personal Use Only

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