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'જાખમે જૈનધમ
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स्था० पू० काशीरामजी म० और उ० आत्मारामजी म० का अधिक वर्चस्व है । स्था० पञ्जाब सम्प्रदाय का अधिक परिचय प्राप्त न होने के कारण मैं यहां उसके लिये ज्यादा नहीं लिखता ।
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धर्मवीर बुटेरायजी ( पू. श्री. बुद्धिविजयजीगणि वि. सं. १९२३ से २९ ) पंजाब में श्वेतांबर मूर्तिपूजकधर्म के पुनरुत्थान का सर्वश्रेय आपको ही है । आपकी जन्मभूमि दुलवा (लुधियाना ) पंजाब है । आप सं. १८८८ में २२ वर्ष की युवावस्था में 'वूटेरायजी' नाम से स्थानकमार्गी साधु बनें और सं. १९१२ में अहमदाबाद में तपगच्छ पृ० श्री मणिविजयजी दादा के वरद करकमलसे बुद्धि विजयजी" नाम से संवेगी साधु बने । आपने सं. १९०३ से ११ तक मुहपत्ति तोडकर शुद्ध श्रद्धाको धारकर पंजाब में श्वेतांबर मूर्तिपूजक धर्म का प्रचार किया । सं. १९०३ में मूलचन्द्रजी म० और सं. १९०८ में वृद्धिचन्द्रजी म०को दोक्षा देकर शिष्य बनाये और उन समर्थ शिष्यों के सहयोग से आपने संवेगी मार्ग को अंगीकार किया । संवेगीपन में इन दोनों शिष्यों के नाम मु० श्री मुक्तिविजयजी ( गणी) और मु० श्री वृद्धिविजयजी रक्खे गये ।
धर्मवीर बुटेरायजी पुनः पंजाब पधारे और इन महर्षिने अनेक प्रत्याघातों का सामना करके पंजाब में श्वेतांबर मूर्तिपूजक धर्म की पुनः नीब डाली । आपने गुजरानवाला, श्यालकोट, पतीयाला, पपनाखा, रामनगर, हुशियारपुर और पसरुर वगैरह स्थाने में कई जैन बनाये । कर्म्मचन्द्रजी शास्त्री, शेठ गुलाबराय माणेकचन्द्रजो शास्त्री और सौदागर मलजी वगैरह को श्वे. मू. धर्म के अनुयायी बनाये । पू, आत्मारामजी म० वगैरह १८ स्था० साधु के जीवन में संवेगी मत का प्राण भर दिया, पंजाब में ७ गाधों में जिनालय स्थापित करवाये और पञ्जाब में श्वे० मू० जैन धर्मकी अचल प्रतिष्ठा करदि ।
पञ्जाबको आपकी कृपासे भ० पार्श्वनाथ की फणावाली पन्ने की प्रतिमा नसीं हुई है, जो आज खानका डोगरा में श्रीमान् भोलेनाथजी भावडा-जैनके वहां पूज्यमान है ।
उक्त पुनरुत्थान के कार्य में आपके दोनों शिष्यों का विनीत सहकार था, जिनके उपदेश से गुजरात काठिजवाडसे पञ्जाब को सब प्रकार की सहायता मिलती रही, फलतः पञ्जाब में संवेगपक्ष विशेष दृढ बन गया । पू० आत्मारामजी म० वगैरह १८ साधु गुजरात में पधारे, पृ० मूलचन्द्रजी गणी म० ने उनको "आनंद विजयजी" इत्यादी नाम देकर संवेगी दीक्षा दी और अपने "गुरुबन्धु" बनावे |
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४ पू० मूलचन्द्रगणी म० और प्र० वृद्धिचन्द्रजी म० को इस समयतक ऐसी प्रतिज्ञा थी कि साधु बनाना, किन्तु अपना शिष्य नहीं बनाना ।
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