Book Title: Jain Pratima Vigyan
Author(s): Balchand Jain
Publisher: Madanmahal General Stores Jabalpur

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Page 13
________________ प्रथम अध्याय जैन प्रतिमाविज्ञान के प्राधारग्रन्थ अर्हत्, सिद्ध, साधु और केवली-प्रज्ञान धर्म, इन चार को जैन परम्परा में मंगल और लोकोत्तम माना गया है। साधु तीन प्रकार के होते हैं, १. प्राचार्य, २. उपाध्याय और ३. सर्व (साधारण) साध । उसी प्रकार केवली भगवान् के उपदेश को जिनवाणी या श्रुत भी कहा जाता है । उपर्युक्त पञ्च परमेष्ठियों और श्रृतदेवता की पूजा करने का विधान प्राचीन जैन ग्रन्थों मे मिलता है । ' किन्ही प्राचार्यों ने पूजा को वैयावृत्त्य का अंग माना है, जैसे समन्तभद्र ने रत्नकरंड श्रावकाचार म, और किती ने इस सामयिक शिक्षाव्रत में सम्मिलित किया है, जैसे सोमदेवसूरि ने यशस्तिलक चम्पू मे। जिनसेन प्राचार्य के आदिपुराण में पूजा, श्रावक के निरपेक्ष कर्म के रूप में अनुशंसित है। पूजा के छह प्रकार बताये गये है, १. नाम पूजा, २. स्थापना पूजा, ३. द्रव्यपूजा, ४ क्षेत्रपूजा, ५. काल पूजा और ६. भावपूजा । २ इनमे से स्थापना के दो है, मद्भाव स्थापना गोर असद्भाव स्थापना । प्रतिष्ठेय की तदाकार सागोपाग प्रतिमा बनाकर उसकी प्रतिष्ठा करना सद्भाव स्थापना है और शिला, पर्णकुंभ, अक्षत, रत्न, पुप्प, ग्रासन आदि प्रतिष्ठेय से भिन्न आकार की वस्तयों में प्रतिष्ठेय का न्यास करना असद्भाव स्थापना है । 3 असद्भाव म्यापना पजा का जैन ग्रन्थकारो न अश्मर निषेध किया है क्योकि वर्तमान काल में लोग लिग मति में मोहित होते है, और वे अमद्भाव स्थापना से अन्यथा कल्पना भी कर सकते है । ४ वमुन्दि न कृत्रिम और अकृत्रिम प्रतिमाओं की पजा का ही स्थापना पृजा कहा है। १. जिणमिद्धमूरिपाठय साहण ज मुयम्स विहवण । कीरइ विविहा पजा वियाण त पूजणविहाण ।। वसुनन्दिश्रावकाचार, ३८० । २ वहीं, ३५१ । ३ भट्टाकल ककृत प्रतिष्ठाकल्प । ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, ३८५; अाशाधर कृत प्रतिष्ठासारोद्धार, ६१६३. ५. एवं चिरतमाणं कट्टिमाट्टिमाण पडिमाण । जं कीरइ बहुमाण ठवणापुज्जं हि तं जाण ।। वमुनंदि श्रावकाचार, ४४६ ।

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