Book Title: Jain Dharm ki Hajar Shikshaye
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 16
________________ [ १२ ] कहने की आवश्यकता नहीं कि मानव की सवृत्तियां उसे ऊंचाई की ओर ले जाती है, असवृत्तियां उसे नीचे गिराती हैं। इतना जानते हुए भी, अधिकांश व्यक्ति अपने भीतर बंठे शतान की बात सुनते है और देववाणी की उपेक्षा कर जाते है। इसका कारण यह है कि मनुष्य विवेक होते हुए भी सुख के वास्तविक रूप को पहचान नही पाता और शैतान के भुलावे में आकर सारतत्त्व को छोड़, छाया के पीछे पड़ जाता है । इसके अतिरिक्त देव द्वारा निर्दिष्ट मार्ग गौरी-शकर की चोटी पर चढ़ने के समान कठिन होता है। इने-गिने व्यक्ति ही उस पर चलने का साहस जुटा पाते है । जन-सामान्य की भापा में हम कह सकते है कि मनुष्य प्रायः सासारिक प्रलोभनों में फस जाता है। उसके विवेक पर अविवेक का और उसके ज्ञान पर अज्ञान का पर्दा पड़ जाता है। जीवन भर वह इसी दूषित चक्र में पड़ा रहता है। धर्म ग्रन्थों में इसी को माया, अज्ञान व मोह कहा गया है, जिसमें ससार के अधिकतर प्राणी लिप्त रहते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि हर आदमी सुख चाहता है, चैन की जिन्दगी बिताने का अभिलापी रहता है। लेकिन विडम्बना यह है कि वह बबूल का पेड लगाकर आम खाने की इच्छा करता है। वह यह भूल जाता है कि बवूल के पेड़ पर आम नही लग सकते । किसी भी उच्च ध्येय की पूर्ति के लिए उमकी ओर निष्ठा तथा दृढ़ता के साथ चलना आवश्यक होता है। मानव की दुर्बलता को ध्यान मे रखकर हमारे महापुरुपों, साधुसंतों तथा चिन्तकों ने विपुल साहित्य की रचना करके बताया है कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है और उसकी सिद्धि किस प्रकार हो सकती है ? हमारे धर्मग्रन्थ ऐसी लोकोपयोगी सामग्री से भरे पडे हैं। संसार का शायद ही कोई धर्म ऐसा हो, जिसने मानव को उर्ध्वगामी बनने की प्रेरणा न दी हो।

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