Book Title: Jain Dharm ki Hajar Shikshaye
Author(s): Madhukarmuni
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar

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Page 17
________________ [ १३ ] अन्य धर्मों की भांति इस दृष्टि से जैनधर्म भी अत्यन्त सम्पन्न है। प्राचीनकाल से लेकर अब तक जैनाचार्यों ने ऐसा बहुत-सा साहित्य रचा है, जो न केवल मानव-जीवन के मर्म को उद्घाटित करता है अपितु उस पर चलने को उत्प्रेरित भी करता है। ___ मुझे यह देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई कि जैनश्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा के विद्वान् संत श्री 'मधुकर' मुनि [मुनि श्री मिश्रीमलजी ने अनेक जैन ग्रन्थों का अध्ययन-अनुशीलन करके प्रस्तुत पुस्तक का संकलन किया है। लेखक हिन्दी, संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि भाषाओं के विद्वान है, और उनका अध्ययन काफी व्यापक है यह तो प्रस्तुत संकलन से ही स्पष्ट हो जाता है । वे कई ग्रन्थों के प्रणेता हैं । 'साधना के सूत्र', 'अन्तर की ओर' [भाग १-२] आदि के अतिरिक्त जैन कथामाला के अन्तर्गत उनके छह भाग प्रकाशित हो चुके हैं। और करीब २० भाग प्रकाशनाधीन हैं । वह कुशल वक्ता भी हैं। उन्होंने-भगवान महावीर, आचार्य भद्रबाहु, आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य जिनसेन, आचार्य हरिभद्र, उमास्वाति, सिद्धसेन, स्वामीकार्तिकेय, क्षमाश्रमजनभद्रगणी, संघदासगणी, आचार्य हेमचन्द्र, आचार्य सोमदेव प्रभृति महापुरुषों के चुने हुए वचन इस पुस्तक में संग्रहित किए हैं । जीवन की उत्कृष्टता के लिए जो भी विषय आवश्यक है, उसका समावेश उन्होने इसमें किया है । जीवन के ऊर्ध्वमुखी चिंतन एवं उत्थान की प्रेरणा इन सुभाषितों में झलक रही है। पुस्तक की विशेपता यह है कि लेखक की दृष्टि व्यापक रही है और उन्होंने दिगम्बर, श्वेताम्बर, तेरापंथी, स्थानकवासी आदि किसी भी आम्नाय के साहित्य को छोड़ा नहीं है । लगभग सौ ग्रन्थों में से एक हजार शिक्षाएँ छांटकर निकालना गागर में सागर भरने के समान है और इस कार्य को मुनिवर ने बड़ी सुन्दरता व दक्षता से सम्पन्न किया है। सुभाषितों के चुनाव के विषय में मतभेद हो सकता है, लेकिन इसमें संदेह नहीं कि संकलनकर्ता का ध्येय ऊंचा और विशाल रहा है।

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