Book Title: Jain Dharm aur Samajik Samta
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf

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Page 6
________________ 149 जैनधर्म और सामाजिक समता आधारित है। गीता में श्री कृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्माण गुण और कर्म के आधार पर ही किया गया है। डॉ. राधाकृष्णन, इसकी व्याख्या में लिखते हैं, यहाँ जोर गुण और कर्म पर दिया गया है, जाति (जन्म) पर नहीं। हम किस वर्ण के है, यह बात लिंग या जन्म पर निर्भर नहीं है अपितु स्वभाव और व्यवसाय द्वारा निर्धारित होती है।12 युधिष्ठिर कहते हैं, "तत्त्वज्ञानियों की दृष्टि में केवल आचारण (सदाचार) ही जाति का निर्धारक तत्त्व है। ब्राह्मण न जन्म से होता है, न संस्कार से, न कुल से और न वेद के अध्ययन से, ब्राह्मण केवल व्रत (आचरण) से होता है।"13 प्राचीनकाल में वर्ण-व्यवस्था कठोर नहीं थी, अपितु लचीली थी। वर्ण परिवर्तन का अधिकार व्यक्ति के अपने हाथ में था, क्योंकि आचरण या कर्म के चयन द्वारा परिवर्तित हो जाता था। उपनिषदों में वर्णित सत्यकाम जाबाल की कथा इसका उदाहरण है। सत्यकाम जाबाल की सत्यवादिता के आधार पर ही उसे ब्राह्मण मान लिया गया था। 4 मनुस्मृति में भी वर्ण परिवर्तन का विधान है, उसमें लिखा है कि सदाचार के कारण शूद्र ब्राह्मण हो जाता है और दुराचार के कारण ब्राह्मण शूद्र हो जाता है। यही बात क्षत्रिय और वैश्य के सम्बन्ध में भी है। आध्यात्मिक दृष्टि से कोई एक वर्ण दूसरे वर्ण से श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि आध्यात्मिक विकास वर्ण पर निर्भर नहीं होता है। व्यक्ति स्वभावानुकूल किसी भी वर्ण के नियत कर्मों का सम्पादन करते हुए आध्यात्मिक पूर्णता या सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। कोई भी कर्तव्य कर्म-हीन नहीं है . समाज व्यवस्था में अपने कर्तव्य के निर्वाह हेतु और आजीविका के उपार्जन हेतु व्यक्ति को कौन सा व्यवसाय या कर्म चुनना चाहिए, यह बात उसकी योग्यता अथवा स्वभाव पर ही निर्भर करती है। यदि व्यक्ति अपने गुणों या योग्यताओं के प्रतिकूल व्यवसाय या सामाजिक कर्तव्य को चुनता है, तो उसके इस चयन से जहाँ उसके जीवन की सफलता धूमिल होती है वहीं समाज-व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त होती है। आध्यात्मिक श्रेष्ठता इस बात पर निर्भर नहीं है कि व्यक्ति क्या कर रहा है या किन सामाजिक कर्तव्यों का पालन कर रहा है, वरन् इस बात पर निर्भर है कि वह उनका पालन किस निष्ठा और योग्यता के साथ कर रहा है। यदि एक शूद्र अपने कर्तव्यों का पालन पूर्ण निष्ठा और कुशलता से करता है,तो वह अनैष्ठिक और अकुशल ब्राह्मण की अपेक्षा आध्यात्मिक दृष्टि से श्रेष्ठ है। गीता भी स्पष्टतया यह स्वीकार करती है कि व्यक्ति सामाजिक दृष्टि से स्वस्थान के निम्नस्तरीय कर्मों का सम्पादन करते हुए भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से ऊँचाइयों पर पहुँच सकता है। विशिष्ट सामाजिक कर्तव्यों के परिपालन से व्यक्ति श्रेष्ठ या हीन नहीं बन जाता है, उसकी श्रेष्ठता और हीनता का सम्बन्ध तो उसके सदाचरण एवं आध्यात्मिक विकास से है। दिगम्बर जैन आचार्य समन्तभद्र रलक रण्ड श्रावकाचार में लिखते हैं -- सम्यक्- दर्शन से युक्त चाण्डाल शरीर में उत्पन्न व्यक्ति भी तीर्थंकरों के द्वारा ब्राह्मण ही कहा गया है। इसी प्रकार आचार्य रविपेण भी पद्मचरित में लिखते हैं कि -- कोई भी जाति गर्हित नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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