Book Title: Jain Dharm aur Samajik Samta Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Z_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf View full book textPage 5
________________ प्रो. सागरमल जैन 148 ऋषियों की माता ब्राहमणी हैं, न ये संस्कार से ब्राह्मण हुए थे; अपितु ये सभी तप साधना या सदाचार से ब्राह्मण हुए है। इसलिए ब्राह्मण होने में जाति विशेष में जन्म कारण नहीं है, अपितु तप या सदाचार ही कारण है।" कर्मणा वर्ण-व्यवस्था जैनों को भी स्वीकार्य जैन परम्परा में वर्ष का आधार जन्म नहीं, अपितु कर्म माना गया है। जैन विचारणा जन्मना जातिवाद की विरोधी है, किन्तु कर्मणा वर्णव्यवस्था से उसका कोई सैद्धान्तिक विरोध नहीं है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि -- "मनुष्य कर्म से ब्राह्मण, कर्म से क्षत्रिय एवं कर्म से ही वैश्य एवं शूद्र होता है। महापुराण में कहा गया है कि जातिनाम कर्म के उदय से तो मनुष्य जाति एक ही है। फिर भी आजीविका भेद से वह चार प्रकार की कही गई है। व्रतों के संस्कार से ब्राह्मण, शस्त्रों को धारण करने से क्षत्रिय, न्यायपूर्वक अर्थ का उपार्जन करने से वैश्य और निम्न श्रेणी की आजीविका का आश्रय लेने से शूद्र कहे जाते हैं। धन-धान्य आदि सम्पत्ति एवं मकान मिल जाने पर गुरु की आज्ञा से अलग से आजीविका अर्जन करने से वर्ण की प्राप्ति या वर्ण लाभ होता है [38/45-46,1373 | इस का तात्पर्य यही है कि वर्ण या जाति सम्बन्धी भेद जन्म पर नहीं, आजीविका या वृत्ति पर आधारित है। भारतीय वर्ण व्यवस्था के पीछे एक मनोवैज्ञानिक आधार रहा है कि वह वैयक्तिक- योग्यता अर्थात् स्वभाव के आधार पर ही व्यक्ति के सामाजिक दायित्वों ( कर्मों ) का निर्धारण करती है। जिससे इंकार नहीं किया जा सकता है। अपनी स्वाभाविक योग्यता के आधार पर सामाजिक दायित्वों का निर्वाह करने का समर्थन डॉ. राधाकृष्णन और पाश्चात्य विचारक श्री गैरल्ड हर्ड ने भी किया है।10 मानवीय स्वभाव में ज्ञानात्मकता या जिज्ञासा- वृत्ति, साहस या नेतृत्व-वृत्ति, संग्रहात्मकता और शासित होने की प्रवृत्ति या सेवा भावना पायी जाती है। सामान्यतः मनुष्यों में इन वृत्तियों का समान रूप से विकास नहीं होता है। प्रत्येक मनुष्य में इनमें से किसी एक का प्रधान्य होता है। दूसरी ओर सामाजिक दृष्टि से समाज-व्यवस्था में चार-प्रमुख कार्य है -- 1. शिक्षण 2. रक्षण 3. उपार्जन और 4. सेवा। अतः यह आवश्यक माना गया है कि व्यक्ति अपने स्वभाव में जिस वृत्ति का प्रधान्य हो, उसके अनुसार सामाजिक व्यवस्था में अपना कार्य चुनें। जिसमें बुद्धि नैर्मल्य और जिज्ञासावृत्ति हो, वह शिक्षण का कार्य करे, जिसमें साहस और नेतृत्व वृत्ति हो वह रक्षण का कार्य करे, जिसमें विनियोग तथा संग्रह-वृत्ति हो वह उपार्जन का कार्य करें और जिसमें दैन्यवृत्ति या सेवावृत्ति हो वह सेवा कार्य करे। इस प्रकार जिज्ञासा, नेतृत्व, विनियोग और दैन्य की स्वाभाविक वृत्तियों के आधार पर शिक्षण, रक्षण उपार्जन और सेवा के सामाजिक कार्यों का विभाजन किया गया और इसी आधार पर क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये वर्ण बने। अतः वर्ण व्यवस्था जन्म पर नहीं, अपितु स्वभाव ( गुण ) एवं तदनुसार कर्म पर आधारित है। वास्तव में हिन्दू आवार-दर्शन में भी वर्ण-व्यवस्था जन्म पर नहीं, वरन कर्म पर ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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