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શાસ્ત્રસમ્મત માનવધર્મ ઔર મૂર્તિપૂજા
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हो जाते हैं। भगवान् महावीर के जीवन काल की ओर ही दृष्टि निपात कीजिये उनको अपने कर्तव्य मार्ग से विचलित करनेवाले कितने असह्य उपसर्गों का सामना करना पडा ? कितनी विकट एवं अमानुषिक वेदना का अनुभव करना पड़ा? ग्वालों द्वारा कानां में खीले ठोके जाना, पैरों पर खीर पकाई जाना क्या सीमातीत वेदना नहीं थी ? पार्श्वनाथ को कामठ तापस द्वारा विभिन्न २ भवों में किये गये उपसर्ग क्या हृदय में रोमांच नहीं खड़े कर देते हैं ? ऐसे एक नहीं अनेकत्यागी राजा महाराजाओं के दृष्टांत इस भारत भूमि पर विद्यमान हैं जिन्होंने धर्म के खातिर तन मन एवं धन अर्पण कर दिया था। राजा हरिश्चन्द्र ने धर्म के लिये राज्य वैभव का परित्याग कर दिया। कर्ण ने धर्म रक्षा के लिये अपना कवच कुंडल देकर काल का अतिथि बनना स्वीकार किया। शिवि तथा मेघरथ राजा ने धर्म के लिये अपने शरीर का मांस काट कर दे दिया। प्रादने धर्म के लिये हंसते २ अग्नि में प्रवेश किया। अरणक, आनंद एवं कामदेव आदि श्रावकों ने धर्म के वास्ते विविध कष्टोपार्जन किये। ऐसे अनेक धर्म धुरियों ने धर्म के लिये आत्म बलिदान कर दिया। उक्त सर्व उदाहरण धर्म की निर्मलता को ही सिद्ध करते हैं। यद्यपि उक्त महापुरुषों को धर्म निमित्त कष्टों का सामना जरूर करना पड़ा किंतु आज जो उनकी यशःपताका दिदिगत में फहरा रही है वह उनके भगीरथ कष्टपूर्ण तपश्चर्या का ... ही सुपरिणाम है । जो धर्म पर किया होता है, कुर्बानी करता है, जीवन अर्पण करता है धर्म भी उसके लिये प्राण देता है तथा निर्मल यशायु प्रदान कर चारों ओर उसकी कीर्ति दुंदुभि बजा देता है। . . ..
जव धर्म को ठेस पहुंचती है या धक्का लगने का अंदेशा रहता है अथवा धर्म पर कुठाराघात का प्रसंग आ पड़ता है तव पृथ्वीपर दिव्य विभूतियों का आविर्भाव होता है। राम, कृष्ण, महावीर, पाश्वनाथ आदि इसी के परिणाम स्वरूप हैं। स्वयं कृष्ण जी ने भी अपनी भगवद्गीता में अर्जुन को कहा है कि
____यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानि भवति भारत !
___ अभ्युत्थानं धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
संसार की दिव्य विभूतियां थोड़े समय तक अपनी करामात दिखाने तथा जगत् को नीतिधर्म का पाठ पढ़ाने के लिये अवतार लेती हैं। अवतारी पुरुष धर्म की रक्षा के निमित्त ही आते हैं और अपना कर्तव्य पालन कर चले जाते हैं। मीति शास्त्र का तो यहां तक कथन है कि जिस व्यक्ति में धर्म के प्रति श्रद्धा नहीं, जिसने धर्म का माहात्म्य नहीं समझा उसने मानवता को ही नहीं समझा है। धर्म हीन मानव जीवन कहीं भी आदरणीय नहीं होता है। जिस प्रकार सड़े कान की कुतिया जहां जावे वहीं से बाहिर निकाल दी जाती है
उसीप्रकार धार्मिक संस्कार रहित मनुष्य भी जहां जावे वहां अपमान का ही .. अनुभव करता है। कहा भी है किः