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જૈન ધર્મ વિકાસ
पूर्ण है क्योंकि वृद्धावस्था के पूर्व मृत्यु न आवेगी इसका निश्चय ही कैसे हो सकताहै ? क्या इसी अवस्था में हमें मृत्यु प्राप्त होगी इसका पट्टा भी है ? धर्म का संबंध इस जीवन के साथ प्रत्येक अवस्थासे है।
धर्म कोइ स्थूल दृश्य पदार्थ नहीं है और न वह कोई सामान्य वस्तु विशेष ही है जिससे उसका मूल्य अंकित हो सके। वह तो श्रद्धा का विषय है। हृदय का आधार स्तंभ है । और सुलभ बोधी की मूल सम्पत्ति है । शास्त्र रचयिताओंने धर्म के रहने के स्थानों का प्रतिपादन करते हुए बतलाया है कि जिसकी आत्मा में कषायों का प्राबल्य न हो, जो सरलता गुण संपन्न हो, एवं शुद्ध श्रद्धालु हो उसी में धर्म रह सकता है और यही आत्मोन्नति के उपाय भी हैं। कहा भी है कि:
सोही उज्जुय भूयस्स, धम्मो सुद्धस्स चिट्ठइ। ।
निव्वाणं परमं जाइ, घयसित्ति व्व पावए॥ जैसे अग्नि में घृत को सिंचन करने से वह अत्यधिक प्रज्वलित होती है उसी प्रकार तपादि गुणों द्वारा विशुद्ध बनी हुई आत्मा भी निर्वाण (मोक्ष) पद को प्राप्त करती है धार्मिक भावनाए भी शुद्ध व्यक्ति के हृदय में ही रह सकती हैं।
धर्म, चिंतामणि, कल्पवृक्ष, चित्रावेल, एवं कामधेनु गाय के समान इच्छा पूरक तथा चिंता चूरक है। इसका आधार जिन्होंने लिया है वे फकीर भी अमीर कहलाये हैं । अनाथ भी सनाथ बन गये हैं। रंक भी राजा बन गये हैं। अरे! कल्पवृक्ष और चिंतामणि रत्न तो फिर भी परिमित सुख के दाता ही हैं किंतु धर्म रूपी रत्न अपरिमित अनंत मोक्ष सुख का दाता है। - यद्यपि प्रारंभ में धर्म हेतु नानाविध कष्टों का अनुभव अवश्य करना पड़ता है किंतु वे कष्ट केवल मनुष्य को. परीक्षा के निमित्त ही आते हैं। थोड़े काल तक मनुष्य को कसौटी पर कस कर, उसे चल विचल करने के अनेक प्रयत्न कर पुनः स्वस्थान पर ही चले जाते हैं। महात्माओं एवं धर्मात्माओं के धर्म की खरी (सच्ची) परीक्षा ऐसी आपत्तियों के समय ही होती है। विपत्ति में धैर्य रखना यही महात्माओं का मुख्य सिद्धान्त है । कहा भी है किः
विपदि धैर्यमथाभ्युदयेक्षमा,
__सदसि वाक्पटुतायुधि विक्रमः। .... यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ, ... प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ॥
प्रत्येक शुभ कार्य में प्रारंभिक विघ्नों का सामना करना आवश्यक हो जाता है। वे विघ्न अपना क्षणिक प्रभाव प्रकट करने के अनन्तर पुनः सुखरूप