Book Title: Jain Dharm Me Prabhu Darshan Pujan Mandirki Manyata Thi
Author(s): Gyansundarmuni
Publisher: Jain S M Sangh Malwad

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Page 5
________________ प्र. - सूत्रों में तो तीन चौबीसी का नाम मात्र लिखा है, स्थापना कहां है? उ. - जो नाम लिखा है वही तो स्थापना है। जब मूर्ति स्वयं अरिहन्तों की स्थापना है तो सूत्र उन अरिहन्तों की वाणी की स्थापना है, इसमें कोई अन्तर नहीं है। ' प्र. - सूत्रों के पढने से ज्ञान होता है। क्या मूर्ति के देखने से भी ज्ञान होता है? उ. - ज्ञान होना या नहीं होना आत्मा का उपादान कारण से सम्बन्ध रखता है। सूत्र और मूर्ति तो मात्र निमित्त कारण हैं,सत्रों से एकान्त ज्ञान ही होता हो तो जमाली गोशालादि ने भी यही सूत्र पढे थे, फिर उन्हें ज्ञान क्यों नहीं हुआ? और जगवल्लभाचार्य को मूर्ति के सामने केवल चैत्य-वन्दन करने से ही ज्ञान कैसे हो गया? इस प्रकार अनेक पशु पक्षियों व जलचर जीवों को मूर्ति के देखने मात्र से जाति स्मरणादि ज्ञान हो गये हैं, अतः नाम की अपेक्षा स्थापना से विशेष ज्ञान हो सकता है। भूगोल की पुस्तक पढ़ने की अपेक्षा एक नक्शा सामने रक्खो जिससे आपको तमाम दुनिया का यथार्थ ज्ञान हो जायेगा। प्र.-आप जिन प्रतिमा को जिन सारखी कहते हो क्या यह मिथ्या नहीं है? उ. - आप ही बतलाइये यदि जिन प्रतिमा को जिन सारखी नहीं कहें तो फिर क्या कहें? उन्हें किनके सारखी कहें। क्योंकि यह आकृति सिवाय जिन के और किसी के सदृश मिलती नहीं, जिससे उनकी इन्हें उपमा देते हैं। जिन प्रतिमा को जिन-सारखी हम ही नहीं कहते हैं किन्तु खास सूत्रों के मूल पाठ में भी उन्हें जिन सारखी कहा है, जैसे -जीवाभिगम सूत्र में यह लिखा है कि “धूवं दाउणं जिनवराण" अर्थात धूप दिया जिनराज को। अब आप विचार करें कि देवताओं के भवनों में जिन-प्रतिमा के सिवाय कौन से जिनराज हैं? यदि हम आपके फोटू को आपके जैसा कहें तो कौनसा अनुचित हुआ? यदि नहीं, तो फिर जिनराज की प्रतिमा को जिन सारखी कहने में क्या दोष है? यदि कुछ नहीं, तो फिर कहना ही चाहिये। प्र. - यदि मूर्ति जिन सारखी है तो उसमें कितने अतिशय हैं? उ. - जितने अतिशय सिद्धों में हैं उतने ही मूर्ति में हैं? क्योंकि मूर्ति भी तो उन्हीं सिद्धों ही की है। अच्छा, अब आप बतलाईये कि भगवान की छोड़ने जैसा संसार - लेने जैसी दीक्षा (3

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