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श्रवणादि से परिणामों की शुद्धता-निर्मलता होती है। यही आत्मा का विकास है, इसलिये मूर्तिएँ और सूत्र वन्दनीय पूजनीय हैं। __ प्र. - प्रतिमा पूजने ही से मोक्ष होता हो तो फिर तप, संयम आदि कृष्ट-क्रिया की क्या जरूरत है? . ____ उ. - प्रतिमा पूजन मोक्ष का कारण है, इसमें कोई सन्देह नहीं है फिर भी यदि आपका यह दुराग्रह है तो स्वयं बताईये कि तुम दान शील से मोक्ष मानते हो, वह क्यों ? कारण यदि दान शील से ही तुम्हें मोक्ष-प्राप्ति हो जाती है तो फिर दीक्षा लेने का कष्ट क्यों किया जाता है? परन्तु बन्धुओ! यह ऐसा नहीं है-यद्यपि दानशील एवं मूर्तिपूजन ये सब मोक्ष के कारण हैं फिर भी जैसे-गेहूँ धान्य बीज रूप गेहूँ से पैदा होता है। फिर भी ऋतु, जल, . वायु और भूमि की अपेक्षा रखता है, वैसे ही ये मूर्ति पूजन आदि भी तप, संयम आदि साधनों की साथ में आवश्यकता रखते हैं। समझे न?
प्र. - यदि मूर्तियाँ वीतराग की हैं और वीतराग तो त्यागी थे फिर उनकी मूर्तियों को भूषणादि से अलंकृत कर उन्हें भोगी क्यों बनाया जाता है?
उ. - जो सच्चे त्यागी हैं वे दूसरों से बनाये भोगी नहीं बन सकते, यदि बनते हों तो तीर्थंङ्कर समवसरण में रत्नखचित सिंहासन पर विराजते हैं पीछे उनके भामण्डल (तेजोमंडल) ऊपर अशोक वृक्ष, सिर पर तीन छत्र और चारों और इंद्र चमर के फटकारे लगाया करते हैं। आकाश में धर्म चक्र एवं महेन्द्रध्वज चलता है तथा सुवर्ण कमलों पर वे सदा चलते हैं, ढीचण प्रमाणे पुष्पों के ढेर एवं सुगन्धित धूप का धुंआ चतुर्दिश में फैलाया जाता है, कृपया कहिये, ये चिन्ह भोगियों के हैं या त्यागियों के? यदि दूसरे की भक्ति से त्यागी भोगी बन जाय तो फिर वे वीतराग कैसे रहे? असल बात तो यह है कि भावुकात्मा जिन- मूर्तिका निमित्त लेकर वीतराग की भक्ति करते हैं इससे उनके चित्त की निर्मलता होती है और क्रमशः मोक्ष पद की प्राप्ति भी हो सकती है।
प्र. - मन्दिरों में अधिष्ठायक देवों के होते हुए भी चोरियें क्यों होती हैं ?
उ. - यह तो स्थापना है पर प्रभुवीर के पास एक करोड़ देवता होने पर भी समवसरण में में दो साधुओं को गोशाला ने कैसे जला दिया था? भला भवितव्यता को भी कोई टाल सकता है? दीक्षा पचपन की बजाय बचपन में लेना श्रेयस्कर