Book Title: Jain Bharati
Author(s): Shadilal Jain
Publisher: Adishwar Jain

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Page 3
________________ सत्त्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोद, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपा परत्वम् । माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधातु देव ॥ मैत्रीभाव जगत में मेरा सब जोवों से नित्य रहे, दीन दुःखी जीवों पर मेरे उर से करुरणा स्रोत बहे । दुर्जन क्रूर कुमार्गरतों पर क्षोभ नहीं मुझको प्रावे, साम्यभाव रक्खूँ मैं उनपर ऐसी परिरगति हो जावे ॥

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