Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 9
________________ १७६ ] [ कर्म सिद्धान्त से परार्थ या परोपकार वृत्ति का उदय होता है जो शुभ का सृजन करती है । उसी लोक मंगलकारी प्रवृत्तियों के रूप में पुण्य कर्म निसृत होते हैं । जबकि द्व ेष युक्त अप्रशस्त राग ही घृणा को जन्म देकर स्वार्थ वृत्ति का विकास करता है उससे अशुभ, अमंगलकारी पाप कर्म निसृत होते हैं । संक्षेप में जिस कर्म के पीछे प्रेम और परार्थ होते हैं वह पुण्य कर्म और जिस कर्म के पीछे घृणा और स्वार्थ होते हैं वह पाप कर्म । जैन आचार दर्शन पुण्य कर्मों के वर्गीकरण में जिन तथ्यों पर अधिक बल देता है वे सभी समाज सापेक्ष हैं । वस्तुतः शुभ-अशुभ के वर्गीकरण में सामाजिक दृष्टि ही प्रधान है । भारतीय चिन्तकों की दृष्टि में पुण्य और पाप की समग्र चिन्तना का सार निम्न कथन में समाया हुआ है कि " परोपकार पुण्य है और पर-पीड़न पाप है ।" जैन विचारकों ने पुण्य बन्ध के दान, सेवा आदि जिन कारणों का उल्लेख किया है उनका प्रमुख सम्बन्ध सामाजिक कल्याण या लोक मंगल से है । इसी प्रकार पाप के रूप में जिन तथ्यों का उल्लेख किया गया है वे सभी लोक अमंगलकारी तत्त्व हैं ।" इस प्रकार हम कह सकते हैं जहाँ तक शुभ-अशुभ या पुण्य-पाप के वर्गीकरण का प्रश्न है हमें सामाजिक सन्दर्भ में ही उसे देखना होगा । यद्यपि बन्धन की दृष्टि से उस पर विचार करते समय कर्ता के आशय को भुलाया नहीं जा सकता है । सामाजिक जीवन में श्राचरण के शुभत्व का आधार : यह सत्य है कि कर्म के शुभत्व और अशुभत्व का निर्णय अन्य प्राणियों या समाज के प्रति किए गए व्यवहार अथवा दृष्टिकोण के सन्दर्भ में होता है । लेकिन अन्य प्राणियों के प्रति हमारा कौन सा व्यवहार या दृष्टिकोण शुभ होगा और कौनसा व्यवहार या दृष्टिकोण अशुभ होगा इसका निर्णय किस आधार पर किया जाए ? भारतीय चिन्तन ने इस सन्दर्भ में जो कसौटी प्रदान की है, वह यही है कि जिस प्रकार का व्यवहार हम अपने लिए प्रतिकूल समझते हैं वैसा आचरण दूसरे के प्रति नहीं करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना यही शुभाचरण है और इसके विपरीत जो व्यवहार हमें प्रतिकूल है वैसा व्यवहार दूसरे के प्रति करना और जैसा व्यवहार हमें अनुकूल है वैसा व्यवहार दूसरों के प्रति नहीं करना अशुभाचरण है । भारतीय ऋषियों मात्र का यही सन्देश है कि “आत्मनः प्रतिकूलानि पेरषां मा समाचरेत" जिस आचरण को तुम अपने लिए प्रतिकूल समझते हो वैसा आचरण दूसरों के प्रति मत करो । संक्षेप में सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि ही व्यवहार के शुभत्व का प्रमाण है । १ – देखिये १८ पाप स्थान, प्रतिक्रमण सूत्र । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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