Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 11
________________ १७८ ] [ कर्म सिद्धान्त उसमें कहा गया है कि जो जैसा अपने लिए चाहता है वैसा ही व्यवहार दूसरे के प्रति भी करे ।' त्याग-दान-सुख-दुःख, प्रिय-अप्रिय सभी में दूसरे को अपनी आत्मा के समान मान कर व्यवहार करना चाहिए । जो व्यक्ति दूसरे प्राणियों के प्रति अपने समान व्यवहार करता है वही स्वर्ग के सुखों को प्राप्त करता है । जो व्यवहार स्वयं को प्रिय लगता है वैसा ही व्यवहार दूसरों के प्रति किया जाए। हे युधिष्ठर धर्म और अधर्म को पहिचान का यहो लक्षण है।४ पाश्चात्य दृष्टिकोण : पाश्चात्य दर्शन में भी सामाजिक जीवन में दूसरों के प्रति व्यवहार करने का यही दृष्टिकोण स्वीकृत है कि जैसा व्यवहार तुम अपने लिए चाहते हो वैसा ही दूसरे के लिए करो । कान्ट ने भी कहा है कि केवल उसी नियम के अनुसार काम करो जिसे तुम एक सार्वभौम नियम बन जाने को इच्छा कर सकते हो। मानवता चाहे वह तुम्हारे अन्दर हो या किसी अन्य के सदैव से साध्य बनी रहे, साधन कभी न हो । कान्ट का इस कथन का आशय भी यही निकलता है कि नैतिक जीवन के संदर्भ में सभी को समान मानकर व्यवहार करना चाहिए। शुभ और अशुभ से शुद्ध की ओर : जैन विचारणा में शुभ एवं अशुभ अथवा मंगल-अमंगल की वास्तविकता स्वीकार की गई है । उत्तराध्ययन सूत्र में नव तत्त्व माने गये हैं जिसमें पुण्य और पाप को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में गिना गया। जबकि तत्त्वार्थ सूत्र में उमास्वाति ने जीव, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष इन सातों को ही तत्त्व कहा है। वहाँ पर पुण्य और पाप का स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्थान नहीं है। लेकिन यह विवाद अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि जो परम्परा उन्हें स्वतंत्र तत्त्व नहीं मानती है वह भी उनको आस्रव व बन्ध तत्त्व के अन्तर्गत तो मान लेती है । यद्यपि पुण्य और पाप मात्र आस्रव नहीं हैं वरन् उनका बन्ध भी होता है और विपाक भी होता है। अतः आस्रव के दो विभाग शुभास्रय और अशुभास्रय करने से काम पूर्ण नहीं होता वरन् बन्ध और विपाक में भी दो-दो भेद करने होंगे। इस वर्गीकरण की कठिनाई से बचने के लिए ही पाप एवं पुण्य को दो स्वतंत्र तत्त्व के रूप में मान लिया है। १-म० भा० शा० २५८/२१ । २-३-म० भा० अनु० ११३/६-१० । ४-म० भा० सुभाषित संग्रह से उद्धृत । ५-नीति सर्व, पृष्ठ २६८ से उद्धृत । ६-उत्तरा० २८/१४ । ७-तत्त्वार्थ० १/४। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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