Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 20
________________ जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ] [ १८७ है जो तप मूढ़तापूर्वक हठ से मन, वाणी, शरीर की पीड़ा सहित अथवा दूसरे का अनिष्ट करने की नीयत से किया जाता है वह तापस कहलाता है । " साधारणतया मन, वाणी एवं शरीर से होने वाले हिंसा, असत्य, चोरी आदि निषिद्ध कर्म मात्र ही विकर्म, समझे जाते हैं, परन्तु वे बाह्य रूप से विकर्म प्रतीत होने वाले कर्म भी कभी कर्ता की भावनानुसार कर्म या अकर्म के रूप में बदल जाते हैं । आसक्ति और अहंकार से रहित होकर शुद्ध भाव एवं मात्र कर्तव्य बुद्धि से किये जाने वाले हिंसादि कर्म (जो देखने में विकर्म से प्रतीत होते हैं) भी फलोत्पादक न होने से कर्म ही हैं । (३) कर्म - फलासक्ति रहित हो अपना कर्तव्य समझ कर जो भी कर्म किया जाता है उस कर्म का नाम अकर्म है । गीता के अनुसार परमात्मा में अभिन्न भाव से स्थित होकर कर्तापन के अभिमान से रहित पुरुष द्वारा जो कर्म किया जाता है, वह मुक्ति के अतिरिक्त अन्य फल नहीं देने वाला होने से अकर्म ही है । कर्म की अर्थ विवक्षा पर तुलनात्मक दृष्टि से विचार : जैसा कि हमने देखा जैन, बौद्ध और गीता के प्राचार दर्शन, क्रिया व्यापार को बन्धकत्व की दृष्टि से दो भागों में बांट देते हैं । ( १ ) बन्धक कर्म और (२) प्रबन्धक कर्म । प्रबन्धक क्रिया व्यापार को जैन दर्शन में अकर्म या इर्यापथिक कर्म । बौद्ध दर्शन में प्रकृष्ण अशुक्ल कर्म या अव्यक्त कर्म तथा गीता में कर्म कहा गया है । प्रथमतः सभी समालोच्य आचार दर्शनों की दृष्टि में अकर्म कर्म - अभाव नहीं है । जैन विचारणा के शब्दों में कर्म प्रकृति के उदय को समझ कर बिना राग-द्व ेष के जो कर्म होता है, वह अकर्म ही है । मन, वाणी, शरीर की क्रिया के प्रभाव का नाम ही अकर्म नहीं । गीता के अनुसार व्यक्ति की मनोदशा के आधार से क्रिया न करने वाले व्यक्तियों का क्रिया त्याग रूप अकर्म भी कर्म बन सकता है । और क्रियाशील व्यक्तियों का कर्म भी अकर्म बन सकता है । गीता कहती है कर्मेन्द्रियों की सब क्रियाओं को त्याग, क्रिया रहित पुरुष जो अपने को सम्पूर्ण क्रियाओं का त्यागी समझता है, उसके द्वारा प्रकट रूप से कोई काम होता हुआ न दीखने पर भी त्याग का अभिमान या आग्रह रहने के कारण उससे वह त्याग रूप कर्म होता है। उसका वह त्याग का अभिमान या आग्रह अकर्म को भी कर्म बना देता है । इसी प्रकार कर्तव्य प्राप्त १ – गीता १७/१९ । २ - गीता १८ / १७ । ३ - गीता ३ / १० । ४ - गीता ३ / ६ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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