Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 19
________________ १८६ ] [ कर्म सिद्धान्त ( ब ) वे कर्म जो सचिन्त्य होते हुए भी सहसाकृत हैं, उपचित नहीं होते हैं । इन्हें हम श्राकस्मिक कर्म कह सकते हैं । आधुनिक मनोविज्ञान में इन्हें विचार प्रेरित कर्म (आइडिया मोटर एक्टीविटी) कहा जा सकता है | भ्रान्ति वश किया गया कर्म भी उपचित नहीं होता । ( स ) (द) कृत कर्म के करने के पश्चात् यदि अनुताप या ग्लानि हो तो उसका प्रकटन करके पाप विरति का व्रत लेने से कृत कर्म उपचित नहीं होता । (ई) शुभ का अभ्यास करने से तथा आश्रय बल से ( बुद्ध के शरणागत हो जाने से ) भी पाप कर्म उपचित नहीं होता । ४. वे कर्म जो कृत भी नहीं हैं और उपचित भी नहीं हैं-स्वप्नावस्था for गए कर्म इसी प्रकार के होते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं प्रथम दो वर्गों के कर्म प्राणी को बन्धन में डालते हैं लेकिन अन्तिम दो प्रकार के कर्म प्राणी को बन्धन में नहीं डालते हैं । बौद्ध प्राचार दर्शन में भी राग-द्व ेष और मोह से युक्त होने पर कर्म को बन्धन कारक माना जाता है जबकि राग-द्वेष और मोह से रहित कर्म को बन्धन कारक नहीं माना जाता है । बौद्ध दर्शन भी राग-द्वेष और मोह रहित अर्हत के क्रिया व्यापार को बन्धन कारक नहीं मानता है । ऐसे कर्मों को प्रकृष्ण - प्रशुक्ल या व्यक्त कर्म भी कहा गया है । गीता में कर्म-कर्म का स्वरूप : गीता भी इस सम्बन्ध में गहराई से विचार करती है कि कौन सा कर्म बन्धन कारक और कौन सा कर्म बन्धन कारक नहीं है ? गीताकार कर्म को तीन भागों में वर्गीकृत कर देता है । (१) कर्म, (२) विकर्म, (३) अकर्म | गीता के अनुसार कर्म और विकर्म बन्धन कारक हैं जबकि अकर्म बन्धन कारक नहीं हैं । (१) कर्म - फल की इच्छा से जो शुभ कर्म किये जाते हैं, उसका नाम कर्म है | (२) विकर्म - समस्त अशुभ कर्म जो वासनाओं की पूर्ति के लिए किए जाते हैं, विकर्म हैं। साथ ही फल की इच्छा एवं अशुभ भावना से जो दान, तप, सेवा आदि शुभ कर्म किये जाते हैं वे भी विकर्म कहलाते हैं। गीता में कहा गया Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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