Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf

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Page 15
________________ १८२ ] [ कर्म सिद्धान्त नैतिकता हमें उससे परे ले जाती है ।' नैतिक जीवन के क्षेत्र में शुभ और अशुभ का विरोध बना रहता है लेकिन आत्म पूर्णता की अवस्था में यह विरोध नहीं रहना चाहिए। अत: पूर्ण आत्म-साक्षात्कार के लिए हमें नैतिकता के क्षेत्र (शुभाशुभ के क्षेत्र) से ऊपर उठना होगा। ब्रेडले ने नैतिकता के क्षेत्र से ऊपर धर्म (आध्यात्म) का क्षेत्र माना है । उसके अनुसार नैतिकता का अन्त धर्म में होता है । जहाँ व्यक्ति शुभाशुभ के द्वन्द्व से ऊपर उठकर ईश्वर से तादात्म्य स्थापित कर लेता है। वे लिखते हैं कि अन्त में हम ऐसे स्थान पर पहुँच जाते हैं, जहाँ पर क्रिया एवं प्रक्रिया का अन्त होता है, यद्यपि सर्वोत्तम क्रिया सर्वप्रथम यहाँ से ही आरम्भ होती है। यहाँ पर हमारी नैतिकता ईश्वर से तादात्म्य में चरम अवस्था में फलित होती है और सर्वत्र हम उस अमर प्रेम को देखते हैं, जो सदैव विरोधाभास पर विकसित होता है, किन्तु जिसमें विरोधाभास का सदा के लिए अन्त हो जाता है ।२ ब्रडले ने जो भेद नैतिकता और धर्म में किया वैसा ही भेद भारतीय दर्शनों ने व्यावहारिक नैतिकता और पारमार्थिक नैतिकता में किया है । व्यावहारिक नैतिकता का क्षेत्र शुभाशुभ का क्षेत्र है। यहाँ आचरण की दृष्टि समाज सापेक्ष होती है और लोक मंगल ही उसका साध्य होता है। पारमार्थिक नैतिकता का क्षेत्र शुद्ध चेतना (अनासक्त या वीतराग जीवन दृष्टि) का है, यह व्यक्ति सापेक्ष है। व्यक्ति को बन्धन से बचाकर मुक्ति की ओर ले जाना ही इसका अन्तिम साध्य है। शुद्ध कर्म (अकर्म) : शुद्ध कर्म का तात्पर्य उस जीवन व्यवहार से है जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित होती है तथा जो आत्मा को बन्धन में नहीं डालता है । अबन्धक कर्म ही शुद्ध कर्म है । जैन, बौद्ध और गीता के प्राचार दर्शन इस प्रश्न पर गहराई से विचार करते हैं कि आचरण (क्रिया) एवं बन्धन के मध्य क्या सम्बन्ध है ? क्या कर्मणा बध्यते जन्तुः की उक्ति सर्वांश सत्य है ? जैन, बौद्ध एवं गीता की विचारणा में यह उक्ति कि कर्म से प्राणी बन्धन में आता है सर्वांश या निरपेक्ष सत्य नहीं है । प्रथमतः कर्म या क्रिया के सभी रूप बन्धन की दृष्टि से समान नहीं हैं फिर यह भी सम्भव है कि आचरण एवं क्रिया के होते हुए भी कोई बन्धन नहीं हो । लेकिन यह निर्णय कर पाना कि बन्धक कर्म क्या है और प्रबन्धक कर्म क्या है, अत्यन्त ही कठिन है । गीता कहती है कर्म (बन्धक कर्म) क्या है ? और अकर्म (अबन्धक कर्म) क्या है ? इसके सम्बन्ध में विद्वान् भी १-इथिकल स्टडीज, पृष्ठ ३१४ । २-इथिकल स्टडीज, पृष्ठ ३४२ । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org

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