Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf
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जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
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मोहित हो जाते हैं ।' कर्म के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान अत्यन्त गहन विषय है। यह कर्म समीक्षा का विषय अत्यन्त गहन और दुष्कर क्यों है, इस प्रश्न का उत्तर हमें जैनागम सूत्रकृतांग में भी मिलता है । उसमें बताया गया है कि कर्म, क्रिया या आचरण समान होने पर भी बन्धन की दृष्टि से वे भिन्न-भिन्न प्रकृति के हो सकते हैं । मात्र आचरण, कर्म या पुरुषार्थ को देखकर यह निर्णय देना सम्भव नहीं होता है, कि वह नैतिक दृष्टि से किस प्रकार का है। ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही समान वीरता को दिखाते हुए (अर्थात् समान रूप से कर्म करते हुए) भी अधूरे ज्ञानी और सर्वथा अज्ञानी का, चाहे जितना पराक्रम (पुरुषार्थ) हो, पर वह अशुद्ध है और कर्म बन्धन का कारण है, परन्तु ज्ञान एवं बोध सहित मनुष्य का पराक्रम शुद्ध है और उसे उसका कुछ फल नहीं भोगना पड़ता । योग्य रीति से किया हुआ तप भी यदि कीर्ति को इच्छा से किया गया हो तो शुद्ध नहीं होता। कर्म का बन्धन की दृष्टि से विचार उसके बाह्य स्वरूप के आधार पर ही नहीं किया जा सकता है, उसमें कर्ता का प्रयोजन, कर्ता का विवेक एवं देशकालगत परिस्थितियाँ भी महत्त्वपूर्ण तथ्य हैं और कर्मों का ऐसा सर्वांगपूर्ण विचार करने में विद्वत् वर्ग भी कठिनाई में पड़ जाता है। कर्म में कर्ता के प्रयोजन को जो कि एक आन्तरिक तथ्य है, जान पाना सहज नहीं होता है।
लेकिन फिर भी कर्ता के लिए जो कि अपनी मनोदशा का ज्ञाता भी है यह आवश्यक है कि कर्म और अकर्म का यथार्थ स्वरूप समझे क्योंकि उसके प्रभाव में मुक्ति सम्भव नहीं है। गीता में कृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मैं तुझे कर्म के उस रहस्य को बताऊँगा जिसे जानकर तू मुक्त हो जावेगा। वास्तविकता यह है कि नैतिक विकास के लिए बन्धक और प्रबन्धक कर्म के यथार्थ स्वरूप को जानना आवश्यक है । बन्धकत्व की दृष्टि से कर्म के यथार्थ स्वरूप के सम्बन्ध में समालोच्य आचार दर्शनों का दृष्टिकोण निम्नानुसार है।
जैन दर्शन में कर्म-अकर्म विचार :
कर्म के यथार्थ स्वरूप को समझने के लिए उस पर दो दृष्टियों से विचार किया जा सकता है-(१) उसकी बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर और (२) उसकी शुभाशुभता के आधार पर । कर्म का बन्धनात्मक शक्ति के आधार पर विचार करने पर हम पाते हैं कि कुछ कर्म बन्धन में डालते हैं जबकि कुछ कर्म बन्धन में नहीं डालते हैं। बन्धक कर्मों को कर्म और प्रबन्धक कर्मों को प्रकर्म कहा जाता है । जैन विचारणा में कर्म और अकर्म के यथार्थ स्वरूप की
१-गीता ४/१६ । २-सूत्रकृतांग १/८/२२-२४ । ३-गीता ४/१६ ।
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