Book Title: Jain Bauddh aur Gita ke Darshan me Karm ka Swarup
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: Z_Jinvani_Karmsiddhant_Visheshank_003842.pdf
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जैन, बौद्ध और गीता के दर्शन में कर्म का स्वरूप ]
जैन दृष्टिकोण :
जैन दर्शन के अनुसार जिसकी संसार के सभी प्राणियों के प्रति आत्मवत् दृष्टि है वही नैतिक कर्मों का स्रष्टा है ।" दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है समस्त प्राणियों को जो अपने समान समझता है और जिसका सभी के प्रति समभाव है वह पाप कर्म का बन्ध नहीं करता है । 2 सूत्रकृतांग में धर्माकर्म (शुभाशुभत्व ) के निर्णय में अपने समान दूसरे को समझना यही दृष्टिकोण स्वीकार किया गया है। सभी को जीवित रहने की इच्छा है, कोई भी मरना नहीं चाहता, सभी को प्राण प्रिय है, सुख शान्तिप्रद है और दुःख प्रतिकूल है । इसलिए वही आचरण श्रेष्ठ है जिसके द्वारा किसी भी प्राण का हनन नहीं हो । ४
बौद्ध दर्शन का दृष्टिकोण :
बौद्ध विचारणा में भी सर्वत्र आत्मवत् दृष्टि को ही कर्म के शुभत्व का आधार माना गया है । सुतनिपात में बुद्ध कहते हैं- जैसा मैं हूँ वैसे ही ये दूसरे प्राणी भी हैं और जैसे ये दूसरे प्राणी हैं वैसा ही मैं हूँ । इस प्रकार सभी को अपने समान समझकर, किसी की हिंसा या घात नहीं करना चाहिए । धम्मपद में भी बुद्ध ने यही कहा है कि सभी प्राणी दण्ड से डरते हैं, मृत्यु से सभी भय खाते हैं, सबको जीवन प्रिय है अतः सबको अपने समान समझकर न मारे और न मारने की प्रेरणा करें । सुख चाहने वाले प्राणियों को, अपने सुख की चाह से जो दुःख देता है वह मरकर सुख नहीं पाता । लेकिन जो सुख चाहने वाले प्राणियों को, अपने सुख की चाह से दुःख नहीं देता वह मर कर सुख को प्राप्त होता है ।
गीता एवं महाभारत का दृष्टिकोण :
मनुस्मृति, महाभारत और गीता में भी हमें इसी दृष्टिकोण का समर्थन मिलता है। गीता में कहा गया है कि जो सुख और दुःख सभी में दूसरे प्राणियों के प्रति प्रात्मवत् दृष्टि रखकर व्यवहार करता है वही परमयोगी है । ७ महाभारत में अनेक स्थानों पर इस दृष्टिकोण का समर्थन हमें मिलता है ।
१ - अनुयोगद्वार सूत्र १२६ । २ - दशवै ० ४ / ६ ।
३ – सूत्रकृतांग २/२/४ पृष्ठ १०४ । ४ – दशवै ० ६/११ |
५ - सुत्तनिपात ३७ / २७ ।
६ - धम्मपद १२६-१३१-१३३ ।
७ - गीता ६ / ३२ ।
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