Book Title: Jain Bauddh Tattvagyana Part 02
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 6
________________ यदि निर्वाण अभाव या शून्य हो तो ऊपर लिखित विशेषण नहीं बन सक्ते है । विशेषण विशेष्यके ही होते है । जब निर्वाण विशेष्य है तब वह क्या है, चेतन है कि अचेतन । अचेतनक विशेषण नहीं होसक्ते । तब एक चेतन द्रव्य रह जाता है। केवल, भजात, अक्षय, मसस्कृत धातु मादि साफ साफ निर्वाणको कोई एक परसे मिल अजन्मा व ममर, शुद्ध एक पदार्थ झलकाते है। यह निर्वाण जैन दर्शनके निर्वाणसे मिल जाता है जहापर शुद्धात्मा या परमात्माको अपनी केवल स्वतत्र सत्ताको रखनेवाला बताया गया है । न तो वहा किसी ब्रह्ममें मिलना है न किसीके परतत्र होना है, न गुणरहित निर्गुण होना है। बौद्धोंका निर्वाण वेदात साख्यादि दर्शनों के निवा णके साथ न मिलकर जैनोंक निर्वाणके साथ भलेप्रकार मिल जाता है। यह वही मात्मा है जो पाच स्कधकी गाड़ीमें बैठा हुआ ससार चक्रमें घूम रहा था । पाचों स्कोंकी गाड़ी मविद्या और तृष्णाके क्षयसे नष्ट होजाती है तब सर्व सस्कारित विकार मिट जाते है, जो शरीर व अन्य चित्त सस्कारोंमें कारण होरहे थे । जैसे अग्निके सयोगसे जल उबल रहा था, गर्म था, सयोग मिटते हो वह जल परम शात स्वभावमें होजाता है वैसे ही सस्कारित विज्ञान व रूपका सयोग मिटते ही अजात अमर आत्मा केवल रह जाता है। परमा नन्द, परम शात, अनुभवगम्य यह निर्वाणपद है, वैसे ही उसका साधन भी स्वानुभव या सम्यकममाधि है। बौद्ध साहित्यमें जो निर्वाणका कारण अष्टागिकयोग बताया है वह जैनोंके रत्नत्रय मार्गसे मिल जाता है।

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