Book Title: Jain Angashastra ke Anusar Manav Vyaktitva ka Vikas
Author(s): Harindrabhushan Jain
Publisher: Sanmati Gyan Pith Agra

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Page 13
________________ ( ११ ) م :: م م م م ت (३) आस्रव (४) बंध (५) सवर (६) निर्जरा (७) मोक्ष (८), (६) पुण्य तथा पाप (व) लोक का स्वरूप (१) ऊर्ध्व-लोक (२) तिर्यग् लोक (अ) जम्बूद्वीप (३) अधोलोक (स) जैनधर्म और ईश्वर ::::. ر onormomorror or wom س ه م مم مم चतुर्थ अध्याय (मानव-व्यक्तित्व का विकास) १०६ १११ १. विराट् विश्व २. विश्व मे मानव का स्थान ३ मानव-जीवन की प्राप्ति ४. मानव-जीवन की महत्ता विकास की परिभाषा व्यक्तित्व का विकास तथा उसके साधन ७ उपासक तथा श्रमण जीवन ८ विकास की चरम अवस्था ६ व्यक्तित्व-विकास की विभिन्न अवस्थाएँ (अ) (अ) अरिहत (१) तीर्थकर (आ) सिद्ध (इ) आचार्य (ई) उपाध्याय (उ) साधु १० व्यक्तित्व-विकास की विभिन्न अवस्थाएँ (व) ११६ १२१ १२१ १२३ ...

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