Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Drushitpat
Author(s): Devendramuni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 4
________________ जैन आगम-साहित्य : एक दृष्टिपात . :... | द्वादशांगों से विरुद्ध तथ्यों की संभावना नहीं होती, उनका कथन द्वादशांगी से अविरुद्ध होता है। अतः उनके द्वारा रचित ग्रन्थों को भी आगम के समान प्रामाणिक माना गया है। परन्तु यह स्मरण रखना चाहिए कि उनमें स्वत: प्रामाण्य नहीं, परत: प्रामाण्य है। उनका परीक्षण-प्रस्तर द्वादशांगी है। अन्य स्थविरों द्वारा रचित ग्रन्थों की प्रामाणिकता और अप्रामाणिकता का मापदण्ड भी यही है कि वे जिनेश्वर देवों की वाणी के अनुकूल हैं नो प्रामाणिक और प्रतिकूल हैं तो अप्रामाणिक। पूर्व और अंग जैन आगमों का प्राचीनतम वर्गीकरण 'समवायांग' में मिलता है। वहां आगम साहित्य का 'पूर्व' और 'अंग के रूप में विभाजन किया गया है। पूर्व संख्या की दृष्टि से चौदह थे और अंग बारह। पूर्व–'पूर्व' श्रुत व आगम-साहित्य की अनुपम मणिमंजूषा है। कोई भी विषय ऐसा नहीं है जिस पर पूर्व साहित्य' में विचार चर्चा न की गई हो। पूर्व श्रुत के अर्थ और रचनाकाल के संबंध में विज्ञों के विभिन्न मन हैं। आचार्य अभयदेव आदि के अभिमतानुसार द्वादशांगी से प्रथम पूर्व साहित्य निर्मित किया गया था। इसी से उसका नाम पूर्व रखा गया है। कुछ चिन्तकों का यह मन्तव्य है कि पूर्व भगवान पाश्वनाथ की परम्परा की श्रुत राशि है। श्रमण भगवान महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण यह 'पूर्व' कहा गया है। जो हो, इतना तो स्पष्ट है कि पूर्वो की रचना द्वादशांगी से पहले हुई। वर्तमान में पूर्व द्वादशांगी से पृथक नहीं माने जाते हैं। दृष्टिवाद बारहवां अंग है। पूर्वगन उसी का एक विभाग है तथा चौदह पूर्व इसी पूर्वगत के अन्तर्गत हैं। जब तक आचारांग आदि अंग साहित्य का निर्माण नहीं हुआ था, तब तक भगवान महावीर को श्रुत राशि चौदह पूर्व या दृष्टिवाद के नाम से ही पहचानी जाती थी। जब आचार प्रभृति ग्यारह अंगों का निर्माण हो गया तब दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थान दे दिया गया। आगम-साहित्य में द्वादश अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्व पढ़ने वाले दोनों प्रकार के साधकों का वर्णन मिलता हैं, किन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है। जो चतुर्दश पूर्वी होते थे वे द्वादशांगवित् भी होते थे। अंग--जैन, बौद्ध और वैदिक गीन हो भारतीय परम्पराओं में 'अंग' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन परम्परा में उसका प्रयोग मुख्य आगम-ग्रन्थ गणिपिटक के अर्थ में हुआ है। 'दुवालसंगे गणिपिड़गे' कहा गया है। बारह अंग हैं १. आचार २. सूत्रकृत ३. स्थान ४. समवाय ५. भगवती ६. ज्ञाताधर्म कथा ७. उपासकदशा ८.. अन्तकृत्दशा ९. अनुनरौपपातिक १०. प्रश्नव्याकरण। ११. विपाक और १२. दृष्टिवाद। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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