Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Drushitpat
Author(s): Devendramuni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 13
________________ 18 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाहक आगमों की संख्या के संबंध में यह बात नहीं है, उसमें विभिन्न मन हैं। यही कारण है कि आगमों की संख्या कितने ही ८४ मागते हैं, कोई ४५ मानते हैं और कितने ही ३२ मानते हैं। नन्दीसूत्र में आगमों की जो सूची दी गई है, वे सभी आगम वर्तमान में उपलब्ध नहीं हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक समाज मूल आगमों के साथ कुछ नियुक्तियों को मिलाकर ४. आगम मानता है और कोई ८४ मानते हैं। स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा बत्तीस को ही प्रमाणभूत मानती है। दिगम्बर समाज की मान्यता है कि सभी आगम विच्छिन्न हो गये हैं। जैन आगमों की भाषा जैन आगमों की मूल भाषा अर्द्धमागधी है, जिसे सामान्यत: प्राकृत भी कहा जाता है। 'समवायांग' और 'औपपातिक' सूत्र के अभिमतानुसार सभी तीर्थकर अर्धमागधी भाषा में हो उपदेश देते हैं, क्योंकि चारित्र धर्म की आराधना व साधना करने वाले मन्द बुद्धि स्त्री-पुरुषों पर अनुग्रह करके सर्वज्ञ भगवान सिद्धान्त की प्ररूपणा जन-सामान्य के लिए सुबोध प्राकृत में करते हैं। यह देववाणी है। देव इसी भाषा में बोलते हैं। इस भाषा में बोलने वाले को भाषार्य कहा गया है। जिनदासगणी महत्तर अर्धमागधी का अर्थ दो प्रकार से करते हैं। प्रथम यह कि, यह भाषा मगध के एक भाग में बोली जाने के कारण अर्धमागधी कही जाती है, दूसरे इस भाषा में अठारह देशी भाषाओं का सम्मिश्रण हुआ है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो मागधी और देशज शब्दों का इस भाषा में मिश्रण होने से यह अर्धमागधी कहलाती है। भगवान महावीर के शिष्य मगध, मिथिला कौशल आदि अनेक प्रदेश, वर्ग एवं जाति के थे। बताया जा चुका है कि जैनागम ज्ञान का अक्षय कोष है। उसका विचार गाम्भीर्य महासागर से भी अधिक है। उसमें एक से एक दिव्य असंख्य मणि-मुक्ताएँ छिपी पड़ी हैं। उसमें केवल अध्यात्म और वैराग्य के ही उपदेश नहीं है किन्तु धर्म, दर्शन, नीति, संस्कृति, सभ्यता, भूगोल, खगोल, गणित, आत्मा, कर्म, लेश्या, इतिहास, संगीत, आयुर्वेद, नाटक आदि जीवन के हर पहलू को छूने वाले विचार यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। उन्हें पाने के लिए अधिक गहरी डुबकी लगाने की आवश्यकता है। केवल किनारे-किनारे घूमने से उस अमूल्य रत्नराशि के दर्शन नहीं हो सकते। 'आचारांग' और 'दशवकालिक' में श्रमण जीवन से संबंधित आचार-विचार का गम्भीरता से चिन्तन किया गया है। सूत्रकृतांग', अनुयोगद्वार', 'प्रज्ञापना', 'स्थानांग', 'समवायांग' आदि में दार्शनिक विषयों का गहराई से विश्लेषण किया गया है। 'भगवती सूत्र' जीवन और जगत् का विश्लेषण करने वाला अपूर्व ग्रन्थ है। 'उपासकदशांग' में श्रावक साधना का सुन्दर निरूपण है। 'अन्तकृतदशां और 'अनुत्तरौपपातिक' में उन महान् आत्माओं के तप-जप का वर्णन है, जिन्होंने कठोर साधना से अपने जीवन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16