Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Drushitpat Author(s): Devendramuni Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 1
________________ जैन आगम - साहित्य : एक दृष्टिपात ● आचार्य श्री देवेन्द्र मुनि शास्त्री आगम- साहित्य विश्ववाङ्मय की अनमोल निधि है। इसमें जीवन के आध्यात्मिक उन्नयन का पथप्रदर्शन तो मिलता ही है, साथ ही संस्कृति, इतिहास, दर्शन, खगोल, गणितकला आदि विविध विषयों की भी चर्चा आगमों में हुई है । आगमों के संबंध में अनेकविध जिज्ञासाएँ हो सकती हैं, उनमे से कतिपय का समाधान प्रस्तुत लेख में हुआ है। आगमों के महत्त्व, वर्गीकरण, निर्गुण आगम, भाषा, आगम-विच्छेद लेखन आदि के संबंध में यह लेख सारगर्भित जानकारी से परिपूर्ण है प्रस्तुत लेख आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी की लघुकृति (ट्रेक्ट) "जैनागम साहित्य एक परिशीलन' से संकलित किया गया है: आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी को आगम विषयक एक प्रसिद्ध कृति है- "जैन आगम साहित्य : गनन और गोमांसा । विस्तृत अध्ययन के लिए पाठक उस पुस्तक का अवलोकन कर सकते हैं। -सम्पादक आगम साहित्य का महत्त्व जैन आगम - साहित्य भारतीय - साहित्य की अनमोल उपलब्धि है, अनुपम निधि है और ज्ञान विज्ञान का अक्षय भण्डार है। अक्षर-देह से वह जितना विशाल और विराट् है उससे भी कहीं अधिक उसका सूक्ष्म एवं गम्भीर चिन्तन विशद व महान् है । जैनागमों का परिशीलन करने से सहज ही ज्ञात होता है कि यहां केवल कमनीय कल्पना के गगन में विहरण नहीं किया गया है, न बुद्धि के साथ खिलवाड़ ही किया गया है और न अन्य मत मतान्तरों का निराकरण ही किया गया है। जैनागम जीवन के क्षेत्र में नया स्वर, नया साज और नया शिल्प लेकर उतरते हैं। उन्होंने जीवन का सजीव, यथार्थ व उजागर दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, जीवनोत्थान की प्रबल प्रेरणा प्रदान की है, आत्मा की शाश्वत सत्ता का उद्घोष किया है और उसकी सर्वोच्च विशुद्धि का पथ प्रदर्शित किया है। उसके साधन रूप में त्याग, वैराग्य और संयम से जीवन को चमकाने का संदेश दिया है। संयमसाधना, आत्म-आराधना और मनोनिग्रह का उपदेश दिया है। जैन आगमों के पुरस्कर्ता केवल दार्शनिक ही नहीं, अपितु महान् व सफल साधक रहे हैं। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह की साधना की, कठोर तप की आराधना की और अन्तर में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों को नष्ट कर आत्मा में अनन्त पारमात्मिक ऐश्वर्य के दर्शन किये। उसके पश्चात् उन्होंने सभी जीवों की रक्षा रूप दया के लिए प्रवचन किए। आत्म-साधना का नवनीत जन-जन के समक्ष प्रस्तुत किया। यही कारण है कि जैनागमों में जिस प्रकार आत्म-साधना का वैज्ञानिक और क्रमबद्ध वर्णन उपलब्ध होता है. वैसा किसी भी प्राचीन पौर्वात्य और पाश्चात्त्य विचारक के साहित्य में नहीं मिलता। वेदों में आध्यात्मिक चिन्तन नगण्य है और लोक चिन्तन अधिक । उसमें जितना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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