Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Drushitpat
Author(s): Devendramuni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 2
________________ जैन आगम साहित्य एक दृष्टिपात 7 देवस्तुति का स्वर मुखरित है, उतना आत्म-साधना का नहीं। उपनिषद् आध्यात्मिक चिन्तन की ओर अवश्य ही अग्रसर हुए हैं, किन्तु उनका ब्रह्मवाद और आध्यात्मिक विचारणा इतनी अधिक दार्शनिक है कि उसे सर्व साधारण के लिए समझना कठिन ही नहीं, कठिनतर है। जैनागमों की तरह आत्म-साधना का अनुभूत मार्ग उनमें नहीं है। डॉक्टर हर्मन जेकोबी, डॉक्टर शुविंग प्रभृति पाश्चात्त्य विचारक भी यह सत्य तथ्य एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि जैनागमों में दर्शन और जीवन का, आचार और विचार का, भावना और कर्तव्य का जैसा सुन्दर समन्वय हुआ है, वैसा अन्य साहित्य में दुर्लभ है। आगम के पर्यायवाची शब्द मूल वैदिक शास्त्रों को जैसे 'वेद', बौद्ध शास्त्रों को जैसे पिटक' कहा जाता है वैसे ही जैन शास्त्रों को 'श्रुत', 'सूत्र' या 'आगम' कहा जाता है | आजकल 'आगम' शब्द का प्रयोग अधिक होने लगा है किन्तु अतीत काल में 'श्रुत केवली', 'श्रुत स्थविर' शब्दों का प्रयोग आगमों में अनेक स्थलों पर हुआ है, कहीं पर भी आगम-केवली या आगम-स्थविर का प्रयोग नहीं हुआ है। सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम, आप्तवचन, ऐतिह्य, आम्नाय, जिनवचन और श्रुत ये सभी आगम के ही पर्यायवाची शब्द हैं। आगम की परिभाषा 'आगम' शब्द – 'आ' उपसर्ग और 'गम्' धातु से निष्पन्न हुआ है । 'आ' उपसर्ग का अर्थ 'समन्तात्' अर्थात् पूर्ण है और 'गम्' धातु का अर्थ गति प्राप्ति है। 'आगम' शब्द की अनेक परिभाषाएँ आचार्यों ने की हैं। 'जिससे वस्तु तत्त्व (पदार्थ रहस्य) का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है। जो तत्त्व आचार- परम्परा से वासित होकर आता है, वह आगम है। आप्त वचन से उत्पन्न अर्थ (पदार्थ) ज्ञान आगम कहा जाता है । उपचार से आप्तवचन भी आगम माना जाता है । आप्त का कथन आगम है। जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है वह शास्त्र आगम या श्रुतज्ञान कहलाता है। इस प्रकार 'आगम' शब्द समग्र श्रुति का परिचायक है, पर जैन दृष्टि से वह विशेष ग्रन्थों के लिए व्यवहृत होता है। जैन दृष्टि से आप्त कौन है ? प्रस्तुत प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जिन्होंने राग--द्वेष को जीत लिया है वे जिन, तीर्थंकर, सर्वज्ञ भगवान् आप्त हैं और उनका उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है, क्योंकि उनमें वक्ता के साक्षात् दर्शन एवं वीतरागता के कारण दोष की संभावना नहीं होती और न Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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