Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Drushitpat
Author(s): Devendramuni
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 7
________________ 1:2 जिनवाणी जैनागम साहित्य विशेषाङ्क जाय तो द्रव्यानुयोग का संबंध ज्ञानयोग से हैं, चरणकरणानुयोग का कर्मयोग से. धर्म कथानुयोग का भक्ति योग से गणितानुयोग मन को एकाग्र करने की प्रणाली होने से राजयोग से मिलता है । अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती चतुर्थ वर्गीकरण है-अंग, उपांग, मूल और छेद । नन्दी सूत्रकार ने मृल और छेद ये दो विभाग नहीं किये हैं और न वहां पर 'उपांग' शब्द का ही प्रयोग हुआ है। 'उपांग' शब्द भी 'नन्दी' के पश्चात् ही व्यवहन हुआ है। 'नन्दी' में 'उपांग' के अर्थ में हो अंगबाह्य शब्द आया है । आचार्य उमास्वाति ने, जिनका समय पं. सुखलालजी संघवी ने विक्रम की पहली शताब्दी से चतुर्थ शताब्दी के मध्य माना है, 'तत्त्वार्थभाष्य' में अंग के साथ उपांग शब्द का प्रयोग किया है। 'उपांग' से उनका तात्पर्य अंगबाह्य आगमों से ही है। आचार्य श्रीचन्द्र ने, जिनका समय ई. १११२ से पूर्व माना जाता है, उन्होंने 'सुखबोधा समाचारी' की रचना की। उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए अंगबाह्य के अर्थ में उपांग' शब्द प्रयुक्त किया है। आचार्य जिनप्रभ, जिन्होंने ई. १३०६ में 'विधिमार्गप्रणा' ग्रन्थ पूर्ण किया था, उन्होंने उसमें आगमों के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए 'इयाणि उवंगा' लिखकर जिस अंग का जो उपांग है, उसका निर्देश किया है। जिनप्रभ ने 'वायणाविही' की उत्थानिका में जो वाक्य दिया है, उसमें भी उपांग विभाग का उल्लेख हुआ है। पण्डित बेचरदासजी दोशी का अभिमत है कि चूर्णि साहित्य में भी 'उपांग' शब्द का प्रयोग हुआ है, किन्तु सर्वप्रथम किसने किया, का विषय है। यह अन्वेषण मूल और छेद सूत्रों का विभाग किस समय हुआ, यह निश्चित रूप से तो नहीं कहा जा सकता, किन्तु इतना स्पष्ट है कि 'दशवैकालिक', 'उत्तराध्ययन' आदि की नियुक्ति, चूर्णि और वृत्तियों में मूल सूत्र के संबंध में किंचित् मात्र भी चर्चा नहीं की गई है। इससे यह ध्वनित होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी तक 'मूल सूत्र' इस प्रकार का विभाग नहीं हुआ था । यदि हुआ होता तो अवश्य ही उसका उल्लेख इन ग्रन्थों में होता । 'श्रावक विधि' के लेखक धनपाल ने, जिनका समय विक्रम की ग्यारहवीं शताब्दी माना जाता है, अपने ग्रन्थ में पैंतालीस आगमों का निर्देश किया है और 'विचारसार-प्रकरण' के लेखक प्रद्युम्नसूर ने भी, जिनका समय विक्रम की तेरहवीं शताब्दी है, पैंतालीस आगमों का तो निर्देश किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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