Book Title: Jain Agam Sahitya Ek Drushitpat Author(s): Devendramuni Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 5
________________ - जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क आचार प्रभृति आगम श्रुत पुरुष के अंगरथानीय होने से भी अंग कहलाते हैं। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य आगमों का दूसरा वर्गीकरण देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के समय का है। उन्होंने आगमों को अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य इन दो भागों में विभक्त किया। अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने तीन हेतु बतलाये हैं। अंगप्रविष्ट श्रुत वह है१. जो गणधर के द्वारा सूत्र रूप से बनाया हुआ होता है। २.जो गणधर के द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित होता है। ३. जो शाश्वत सत्यों से संबंधित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन होता एतदर्थ ही 'समवायांग' एवं 'नन्दीसूत्र' में स्पष्ट कहा है . द्वादशांगभूत गणिपिटिक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है, और कभी नहीं होगा, यह भी नहीं। वह था, और होगा। वह ध्रुव है. नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। अंगबाहा श्रुत वह होता है जो स्थविर कृत होता है। वक्ता के भेद की दृष्टि से भी अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य दो भेट किये गये हैं। जिस आगम के मूल वक्ता तीर्थंकर हों और संकलन कर्ता गणधर हो वह अंग प्रविष्ट है। पूज्यपाद ने वक्ता के तीन प्रकार बतलाये हैं-- १. तीर्थकर २. श्रुत केवली ३. आरातीय। आचार्य अकलंक ने कहा है कि आरानीय आचार्यों के द्वारा निर्मित आगम अंग प्रतिपादित अर्थ के निकट या अनुकूल होने के कारण अंग बाह्य कहलाते हैं। 'समवायांग' और 'अनुयोगद्वार' में तो केवल द्वादशांगी का ही निरूपण है किन्तु 'नन्दी सूत्र' में अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य का तो भेट किया ही गया है, साथ ही अंग बाह्य के आवश्यक, आवश्यक व्यतिरिक्त, कालिक और उत्कालिक रूप में आभम की सम्पूर्ण शाखाओं का परिचय दिया गया अनुयोग विषय सादृश्य की दृष्टि से प्रस्तुत वर्गीकरण किया गया है। व्याख्या क्रम की दृष्टि से आगमों के दो रूप होते हैं. १. अपृथक्त्वानुयोग २. पृथक्त्वानुयोग आर्यरक्षित से पहले अपृथक्वानयोग का प्रचलन था। अपृथक्त्वानुयोग में हर एक सूत्र की व्याख्या चरणकरण, धर्म, गणित और द्रव्य की दृष्टि से होती थी। यह व्याख्या अत्यधिक क्लिष्ट और स्मृति सापेक्ष थी। आर्यरक्षिन के चार मुख्य शिष्य थे- १ . दुर्बलिका पुष्यमित्र २. फल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16