Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 5
________________ सकते, उसी प्रकार वृक्ष, लट, कीड़ी, मकोड़े, मक्खी, पशु, पक्षो मनुष्यादि कोई भी प्राणी दुःख भोगने की इच्छा नहीं करते और न सह सकते हैं । अतएव सब जीवों को अपने समान जानकर उनको जरा भी दुःख कभी मत दो, कष्ट मत पहुंचाओ, सदा उन पर दया करो। जो पुरुष दयावान् हैं, उनके पवित्र हृदय में ही पवित्र धर्म ठहर सकता है, निर्दयी पुरुष धर्म के पात्र नहीं । उनके हृदय में धर्म की उत्पत्ति अथवा स्थिति कदापि नहीं हो सकती । ऐसा जानकर सदा सर्व जीवों पर दया करना योग्य है। दया-पालक के झूठ, चोरी, कुशीलादि पंच पापों का त्याग सहज ही हो जाता है। (८) जलगालन अनछने जल की एक बूंद में असंख्य छोटे-छोटे त्रस जीव होते हैं । अतएव जीवदया के पालन तथा अपनी शारीरिक आरोग्यता के निमित्त जल को दोहरे छन्ने से छानकर पीना योग्य है । छन्ने का कपड़ा स्वच्छ, सफेद, साफ़ और गाढ़ा हो। खुरदरा, छेददार, पतला, पुराना, मैला-फटा तथा ओढ़ा-पहिना हुआ कपड़ा छन्ने के योग्य नहीं है। पानी छानते समय छन्ते में गुड़ी न रहे । छन्ने का प्रमाण सामान्य रीति से शास्त्रों में ३६ अंगुल लम्बा और २४ अंगुल चौड़ा कहा है, जो दोहरा करने से २४ अंगुल लम्बा और १८ अंगुल चौड़ा होता है। छन्ने में रहे हुए जीव अर्थात् जीवाणी (बिलछानी) रक्षापूर्वक उसी जलस्थान में डाले जिसका पानी भरा हो । तालाब, बावड़ी, नदी आदि जिसमें पानी भरने वाला जल पहुंच सकता है, जीवाणी डालना सहज है। कुएं में जीवाणी बहुधा ऊपर से डाल दी जाती है सो या तो वह कुएं में दीवालों पर गिर जाती है अथवा कदाचित् पानी तक भी पहुंच जाय, तो उसमें के जीव इतने ऊपर से गिरने के कारण मर जाते हैं, जिससे जीवाणी डालने का अभिप्राय अहिंसा धर्म नहीं पल पाता। अतएव भंवरकड़ी हाल लोटे से कुएं के जल में जीवाणी पहुंचाना योग्य है। पानी छानकर पीने से जीवदया पलने के सिवाय शरीर भी नीरोगी रहता है। वैद्य तथा डाक्टरों का भी यही मत है।। अनछना पानी पीने से बहुधा मलेरिया ज्वर, नहरुवा आदि दुष्ट रोगों की उत्पत्ति होती है। इन उपयुक्त हानि-लाभों का विचार कर हर एक बुद्धिमान पुरुष का कर्तव्य है कि शास्त्रोक्त रीति से जल छानकर पीवे । छानने के पीछे उसकी मर्यादा दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनट तक होती है। इसके बाद जीव उत्पन्न हो जाने से वह जल फिर अनछने के समान हो जाता है। इन अष्ट मूलगुणों में देव-दर्शन, जल-छानन और रात्रि-भोजन-त्याग ये ३ गुण तो ऐसे हैं जिनसे हरएक सज्जन पुरुष जैनियों के दया धर्म की तथा धर्मात्मापन की पहिचान कर सकता है। अतएव आत्महितेच्छु धर्मात्माओं को चाहिए कि जीव मात्र पर दया करते हुए प्रामाणिकतापूर्वक बर्ताव करके इस पवित्र धर्म की सर्व जीवों में प्रवृत्ति करें। इस प्रकार की सद्भावना करने से शीघ्र ही कर्मों का बन्धन नष्ट होकर अक्षय सुख की प्राप्ति होती है। शद्ध भोजन मनुष्य जैसा भोजन करता है उसका वैसा ही प्रभाव उसके शरीर तथा मन पर पड़ता है । शुद्ध सात्त्विक भोजन करने वाले स्त्री-पुरुषों के मन में बुरी नीच वासनाएं नहीं आने पातीं । इसी कारण यह एक लौकिक किंवदन्ती है जैसा खाओ अन्न, वैसा होवे मन । जैसा पीओ पानी, वैसी होवे बानी॥ इस कारण मन में अच्छे शुभ विचार लाने के लिये शुद्ध भोजन करना भी आवश्यक है । मांस एक घृणित तामसिक पदार्थ है । अत: धार्मिक व्यक्ति मांस-भक्षण से सदा दूर रहते हैं किन्तु उन्हें मांस-भक्षण-त्याग व्रत को निर्दोष रखने के लिये ऐसे पदार्थों को भी भोजन में न लेना चाहिये जिनमें सूक्ष्म त्रस जीवों के उत्पन्न होने की सम्भावना हो । क्योंकि त्रस जीवों का कलेवर ही तो मांस कहलाता है। अतः जिन पदार्थों में नेत्रों से स्पष्ट दिखाई न दे सकने वाले भी कीटाणु उत्पन्न हो जावें उन पदार्थों के खाने से मांस-भक्षण का दोष लगता है। इस कारण नीचे लिखी वस्तुओं को आहार-पान में न लेना चाहिये । चर्म पात्र का निषेध चमड़ा गाय, बैल, भैस, बकरी, हरिण, ऊँट आदि पशुओं के शरीर से उतारा जाता है, अतः उस चमड़े से बने हुए कुप्पा, मशक आदि बर्तनों में यदि पानी, तेल, घी आदि पदार्थ रक्खे जावें तो उनमें नमी तथा चिकनाई से सूक्ष्म त्रस जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इस कारण चमड़े में रक्खे हुए पानी, घी, तेल, हींग आदि पदार्थ न खाने चाहिये । अन्न-शोधन गेहूं, चना, जौ, उड़द, मूंग आदि अनाजों तथा दालों में कुछ खार (क्षार तत्त्व) होता है। वह क्षार तत्त्व जब तक अनाजों में बना रहता है तब तक वे अनाज ठीक रहते हैं। उनमें जीव-जन्तुओं की उत्पत्ति नहीं हो पाती। किन्तु जब उनका वह क्षार तत्त्व कम हो जाता है अथवा सारा नष्ट हो जाता है तब उनमें भीतर त्रस कीटाणु उत्पन्न होने लगते हैं, जिनको कि घुन कहते हैं। आचार्यरत्न श्री वेशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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