Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 6
________________ चना, उड़द, मूंग, मोठ में जब घुन लगने वाला होता है तब पहले उन पर सफेद फुल्ली आ जाती है। यह सफेद फुल्ली ही इस बात का चिह्न है कि इस अन्न में घुन लगना प्रारम्भ हो गया है। अनाज या दालों को ठीक तरह से शोधा या बीना न जावे तो उनको पीसते समय या दलते समय अथवा उबालते समय उनके भीतर वे घुन के सूक्ष्म कीटाणु भी पिस जाते हैं या उबल कर मर जाते हैं और भोजन करते समय उन जीवों का कलेवर खाने में आ जाता है । इस कारण बिना शोधा, बीना, फटका अनाज न पिसाना चाहिये, न दलना चाहिये और न उबालना चाहिये । बिना शोध हुए गेहूं आदि अनाजों में कंकड़ियां भी रह जाती हैं जो कि अन्न के साथ पिस कर आटे में मिल जाती हैं। ऐसे आटे का भोजन करने से पथरी रोग होने की भी आशंका रहती है। इस प्रकार के अनाज का भोजन भी शरीर के लिए हानिकारक होता है । अतः जीवदया की दृष्टि से तथा शरीर-रक्षा की दृष्टि से भी शोधा हुआ अन्न ही भोजन के लिये लेना चाहिये । जलादि-शोधन कच्चे पानी में त्रस जीव उत्पन्न होते रहते हैं । उनमें से कुछ तो बिना छाने पानी में स्पष्ट दिखाई पड़ते हैं और कुछ बहुत सूक्ष्म होने से दिखाई नहीं पड़ते । अतः पानी दोहरे कपड़े से छान कर पीना चाहिये । किन्तु यह ध्यान रहे कि छाना हुआ जल दो घड़ी ( ४८ मिनट) तक ही ठीक रहता है, उसके बाद उसमें फिर जीव उत्पन्न होने लगते हैं । यदि उस छने हुए पानी में लौंग, इलायची, इमली आदि कषायली वस्तु पीसकर मिला दी जाये, जिससे कि उसका स्वाद बदल जाये, तो उस जल में ६ घंटे तक त्रस जीव उत्पन्न नहीं होते। छने हुए पानी को गर्म कर लिया जावे तो १२ घंटे तक उसमें जीव उत्पत्ति नहीं होती और छने हुए पानी को उबाल लेने पर २४ घंटे तक उस जल में त्रस जीव उत्पन्न नहीं हो पाते । घी और तेल में भी मक्खी-मच्छर आदि जीव-जन्तु गिर पड़ते हैं । कभी-कभी चूहे भी तेल घी के पीपे में गिर कर मर जाते हैं । अतः घी और तेल भी कपड़े से छानकर खाने-पीने के काम में लेने चाहिये जिसमें मांस के दोष से बचा जा सके तथा शरीर को भी हानि न पहुंचे । दूध, शर्बत, ईख का रस, फलों का रस आदि पेय पदार्थ भी कपड़े से छानकर ही पीने चाहियें । पाक विधि शुद्ध भोजन तैयार करने के लिये जहां अनाज, आटा, दाल, जल, घी, तेल की शुद्धता का ध्यान रक्खा जावे वहां भोजन बनाने की निर्दोष विधि का भी विचार रखना आवश्यक है । इसके लिये रसोई बनाने के स्थान पर एक तो छत में चादर तनी रहनी चाहिये जिससे मकड़ी, छिपकली, छत की मिट्टी आदि भोज्य पदार्थों में न गिरने पावे। छतों तथा पक्की दीवालों पर भी मकड़ी के जाले आदि न लगने पावें इसका भी ध्यान रखना चाहिये । रसोईघर में पर्याप्त प्रकाश होना चाहिये जिससे शाक, रोटी आदि बनाते समय दाल, आटा, शाक में आकर गिरा हुआ जीव-जन्तु, बाल आदि साफ़ दिखाई दे सके । सूर्य उदय से कम-से-कम दो घड़ी पीछे और सूर्य अस्त से घड़ी पहले तक के दिन के समय में भोजन बनाना चाहिये । रात्रि के समय में भोजन तैयार न करना चाहिये । और कोई चीजें बिखरी हुई ठीक तरह से मंजे हुए साफलगी हुई हो, रोशनदानों में साफ शीशे लगे हों धुंआ रसोईपर रसोईघर साफ़-सुथरा होना चाहिये, न वहां कूड़ा-कर्कट हो, न कीचड़ हो, न हों। रसोईघर में मनिखयां न आने पायें चीटियां न एकत्र हो सकें, पानी बिखरा हुआ न हो, वर्तन सुधरे यथास्थान रखते हुए हों, खिड़कियों पर बारीक तार की जाली से बाहर ठीक निकलता हो । रसोईघर से पानी निकालने की नाली ठीक हो जिससे रसोईघर में दुर्गन्ध न होने पावे । इन सब बातों का ध्यान रखना चाहिये । } रसोइया ऊपर लिखी बातों के अतिरिक्न भोजन बनाने वाली स्त्री या पुरुष की शुद्धता का भी ध्यान रखना चाहिये। स्नान करके शुद्ध वस्त्र पहनने के बाद ही रसोईघर में जाकर भोजन बनाना चाहिये । रसोई बनाने के लिये यदि कोई व्यक्ति रक्खा जावे तो जहां तक हो सके वह साधर्मी हो जिससे कि ठीक विधि से रसोई बनाना वह जानता हो क्योंकि जो लोग स्वयं पानी छानकर पीते हैं तथा जीव दया का पूर्ण ध्यान रखते हैं उनके हाथ से बने हुए भोजन में शुद्धता अनायास आवेगी ही । जो स्त्री-पुरुष साधर्मी नहीं हैं उनको छने हुए जल आदि का कुलाचार के अनुसार विचार नहीं होता । अतः उनका बनाया हुआ भोजन उतना शुद्ध नहीं बनता । अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only ve www.jainelibrary.org

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