Book Title: Jain Achar Samhita Author(s): Deshbhushan Aacharya Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdfPage 20
________________ इस तरह संसार की सारी भाग-दौड़ और अनेक तरह के परिश्रमों का मूल कारण भूख मिटाने का प्रयास है। इसी में धनिक, निर्धन की समस्या छिपी हुई है । धनिक अधिक द्रव्य संचय करके दूसरों को अपना दास बना लेता है और दूसरे मनुष्य अपने पास कम सचय होने के कारण धनिकों के दास बन जाते हैं । इसी आर्थिक विषमता के कारण संसार में लड़ाई, झगड़े, लूट, चोरी, अनीति, अन्याय, अत्याचार, धोखेबाजी आदि बुरे कामों की सृष्टि होती है। क्रोध, मान, मायाचार, लोभ आदि दुर्गुण भी इसी के फल हैं । । धन की अत्यधिक विषमता को दूर करने के लिये जैन धर्म में कुछ मौलिक आचरणीय सिद्धान्त बतलाये गये हैं। महाव्रती साधु के लिये धन-सम्पत्ति का पूर्ण त्याग रूप अपरिग्रह रक्खा है। तदनुसार जैन साधु फूटी कौड़ी भी अपने पास नहीं रख सकता । गृहस्थ के लिये जो ११ श्रेणियाँ ( प्रतिमायें) बताई हैं उनमें से १-१०-११वीं श्रेणी का व्यक्ति योग्य वस्त्र तो अपने पास रख सकता है परन्तु रुपयापैसा आदि जरा भी नहीं रख सकता । नीचे की श्रेणी के जैन गृहस्थों के लिये धन के विषय में दो नियमों का पालन करना पड़ता है१. परिग्रह का परिमाण, २. दान । अपनी आवश्यकता के अनुकूल रुपया-पैसा, सोना-चांदी, मकान, पशु, वस्त्र, बर्तन आदि गृहस्थ उपयोगी पदार्थों का नियम करना, कि मैं इतना रुपया अपने पास रक्ंंगा, इतने रुपये हो जाने के बाद और अधिक संचय करना त्याग दूंगा, इतना सोना-चांदी, मकान आदि रक्खूंगा, उससे अधिक नहीं परिग्रह परिमाण व्रत है । धार्मिक व्यक्तियों तथा दीन-दुःखी जीवों को उनकी आवश्यकतानुसार भोजन, औषधि आदि देना दान है। वैसे दान के चार भेद किये हैं- १. अन्वयदान, २. समदान, ३. पात्र दान, ४. दयादान । अपने पुत्र, भाई-भतीजे आदि को अपनी सम्पत्ति देना अन्वय दान है। अपने समाज जाति के योग्य वर को अपनी कन्या देना, कन्या लेना, जीमनवार खिलाना, प्रेम-व्यवहार के लिये कोई वस्तु अपनी जाति-बिरादरी में बाँटना आदि समानता का सामाजिक लेन-देन समदान कहलाता है । मुनि, ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका क्षुल्लिका आदि धर्मात्मा पुरुषों के लिये आहार, उपकरण आदि प्रदान करना पात्रदान है और दीन-दुःखी अनाथ असहाय स्त्री-पुरुष, पशु-पक्षियों के दुःख संकट दूर करने के लिये उनकी आवश्यकता के योग्य वस्तुएं दान करना दयादान है । इनमें से प्रारम्भ के दो दान तो ऐसे हैं जिनको सभी मनुष्य स्वार्थ साधन के लिये किया ही करते हैं। ऐसा किये बिना उनका समाज में निर्वाह नहीं हो सकता । इन दानों में तो केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अपनी वंश-परम्परा में धर्म-आचरण चलता रहे और कोई सामाजिक दोष न उत्पन्न होने पाए तथा कन्या के योग्य गुणी, स्वस्थ, सदाचारी वर को ही प्रमुखता दी जाए, केवल धन देखकर दुर्गुणी, रोगी, अशिक्षित, दुर्जन, प्रौढ़, वृद्ध आदि अयोग्य वर के साथ कन्या का विवाह न किया जाए। इसी तरह अपने पुत्र के लिये कन्या लेते समय दहेज के धन पर दृष्टि न रख कर शिक्षित, गुणी, विनीत, सुन्दर कन्या को विशेषता देनी चाहिये । यहां इतना और ध्यान रखना चाहिये कि विवाह सगाई आदि करते समय सामाजिक नियमों का उल्लंघन न किया जाए जिससे समाज के साधारण व्यक्तियों को तंगी न होने पावे । विवाह शादी आदि के ऐसे सरल, कम खर्चीले नियम बनाने चाहियें जिससे समाज का गरीब से गरीब व्यक्ति भी अपने पुत्र-पुत्रियों का विवाह सम्बन्ध कर सकें । परोपकार रूप दान तो पात्रदान दयादान ही हैं । 1 पात्र के तीन भेद हैं- १. उत्तम, २. मध्यम ३ जघन्य । उत्तम पात्र ( धर्म के भाजन) महाव्रती मुनि होते हैं । निर्ग्रन्थ तपस्वी मुनि सदा ज्ञान-आराधन, आत्मसाधना तथा धर्म उपदेश देना आदि स्व-उपकार, पर उपकार करने में लगे रहते हैं। किसी से कुछ नहीं लेते किन्तु सबको सत्ज्ञान, अभयदान देते हैं। जनता को कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगाते हैं। ऐसे सर्वोच्च धर्मात्मा मुनि उत्तम पात्र हैं । उनको भोजन कराना, कमंडलु, पीछी तथा स्वाध्याय करने के लिये शास्त्र देना, उत्तम पात्र दान है । व्रताचरण करने वाले श्रावकों को उनकी आवश्यकता के अनुसार भोजन, औषधि, शास्त्र आदि देना मध्यम पात्र दान है । व्रतरहित सम्यक् धर्मं श्रद्धालु व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुकूल वस्तु प्रदान करना जघन्य पात्र दान है । पात्र दान द्वारा जगत् का उपकार करने वाले धार्मिक सज्जनों, साधु-सन्तों की सुरक्षा तथा वृद्धि होती है, जिससे कि जगत् में सदाचार, शान्ति का प्रसार होता है, दुराचार और अशान्ति में कमी होती है । अतः पात्र दान सब दानों में श्रेष्ठ दान है । दीन-दुःखी जीवों पर दया करके दुःख मिटाने के लिये चार प्रकार की वस्तुओं का दान करना चाहिये - १. आहार दान, २. औषधि दान, ३. विद्या दान, ४. अभय दान । अमृत-कण Jain Education International For Private & Personal Use Only ५५ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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