Book Title: Jain Achar Samhita
Author(s): Deshbhushan Aacharya
Publisher: Z_Deshbhushanji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012045.pdf

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Page 3
________________ जो व्यक्ति अपने धर्माचार में दृढ़ होते हैं, संसार की कोई भी शक्ति उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती। प्रकृति उनकी सहायता करती है। इस कारण कम-से-कम धर्म-आचरण की मूल भूमिका रूप अष्ट मूलगुण प्रत्येक व्यक्ति को अविचल रूप से स्वीकार करने चाहिये। श्रावक धर्म कल्याण की इच्छा रखने वाले को सबसे पहले सच्चे देव, सच्चे गुरु, सच्चे शास्त्र का श्रद्धान करना चाहिए और भली-भांति कहे हुए उनके तत्त्वों को समझना चाहिए। जैन धर्म का पक्ष रखने वाले को मूल गुणों का पालन करना चाहिए। वे आठ मूल गुण इस प्रकार हैं ___ कई ग्रन्थों में बड़, पीपल, गूलर(ऊमर), कठूमर, पाकर-इन पांच उदुम्बर फलों (जिनमें प्रत्यक्ष जीव दिखाई देते हैं) तथा मद्य, मांस, मधु (जो त्रस जीवों के पिण्ड हैं) के त्याग करने को अष्ट मूल गुण कहा है। रत्नकरण्डश्रावकाचारादि कई ग्रन्थों में पंचाणुव्रत धारण करने तथा तीन प्रकार के त्याग को अष्टमूलगुण कहा है। महापुराण में मधु की जगह सप्त व्यसन के मूल जुआ खेलने की गणना की है । सागरधर्मामृतादि कई ग्रन्थों में मद्य, मांस, मधु-इन तीन प्रकार के त्याग के ३, उपर्युक्त पंच उदुम्बर फलों के त्याग का १, रात्रि भोजन के त्याग का १, नित्यवंदना करने का १, जीवदया पालने का १, जल छानकर पीने का १, इस प्रकार अष्ट मूल गुण कहे हैं। इन सा ऊपर कहे हए अष्ट मूलगुणों पर जब सामान्य रूप से विचार किया जाता है तो सभी का मत अभक्ष्य, अन्याय और निर्दयता के त्याग कराने और धर्म में लगाने का नियम एक समान ज्ञात होता है। अतएव सबसे पीछे कहे हुए त्रिकाल वन्दना तथा जीवदया-पालनादि अष्ट मूलगुणों में इन अभिप्रायों की भलीभाँति सिद्धि होने के कारण यहां उन्हीं के अनुसार वर्णन किया जाता है। (१) मद्यपान-त्याग-मद्य बनाने के लिए दाख छुआरे आदि पदार्थ कई दिनों तक सड़ाये जाते हैं। पीछे यन्त्र द्वारा उनसे शराब उतारी जाती है। वह महा दुर्गन्धित होती है । इसके बनने में असंख्यात अनन्त, त्रस स्थावर जीवों की हिंसा होती है। यह मद्य मन को मोहित करती है, जिससे धर्म-कर्म की सुध-बुध नहीं रहती तथा इसका सेवन करने से पच पापों में नि:शंक प्रकृति होती है। इसी कारण मद्य को पांच पापों की जननी कहते हैं । मद्य पीने से मूर्छा, कम्पन, परिश्रम, पसीना, विपरीतपना, नेत्रों के लाल हो जाने आदि दोषों के सिवाय मानसिक एवं शारीरिक शक्ति नष्ट हो जाती है। शराबी धनहीन और अविश्वास का पात्र हो जाता है। उसका शरीर प्रतिदिन अशक्त होता जाता है। अनेक रोग उसे घेरते हैं। आयु क्षीण होकर नाना प्रकार के कष्टों को भोगता हुआ वह मरता है। प्रत्यक्ष ही देखो। मद्यपी मद्य पीकर उन्मत्त होकर माता, पुत्री, बहिन आदि की सुधि भूलकर निर्लज्ज हुआ यद्वातद्वा बर्ताव करता है। इस प्रकार मद्यपी स्व-पर को दुःखदाई होता हुआ जितने कुछ संसार में दुष्कर्म करता है, उससे कोई भी व्यसन बचा नहीं रहता। ऐसी दशा में धर्म की शुद्धि तथा उसका सेवन होना सर्वथा असम्भव है। मद्य पीने वाला लोक में निंद्य तथा दुःखी रहता है और मरने पर नरक को प्राप्त होकर अति तीव्र कष्ट भोगता है । वहां उसे संडासियों से मुंह फाड़-फाड़ कर गर्म तांबा तथा सीसा पिलाया जाता है । इस प्रकार मद्य-पान को लोक-परलोक को बिगाड़ने वाला जानकर दूर से ही त्याग देना योग्य है। स्मरण रहे कि चरस, चंड, अफीम, गांजा, तम्बाकू, कोकेन आदि नशीली चीजें खाना या पीना भी मदिरा-पान के समान धर्म-कर्म नष्ट करने वाला है । अतएव मद्यत्यागी को इन सब का त्यागना ही योग्य है। (२) मांस-भक्षण त्याग-मांस त्रस जीवों के वध से उत्पन्न होता है। इसके स्पर्श, आकृति, नाम और दुर्गन्धि से चित्त में महाग्लानि उत्पन्न होती है। यह जीवों के मूत्र, विष्ठा एवं सप्त धातु उपधातु रूप महा अपवित्र पदार्थों का समूह है। मांस का पिण्ड चाहे सूखा हुआ हो चाहे पका हुआ हो, उसमें हर हालत में त्रस जीवों की उत्पत्ति होती ही रहती है। मांस-भक्षण के लोलुपी बिचारे, निरपराध, दीन-मूक पशुओं का वध करते हैं। मांसभक्षियों का स्वभाव निर्दय व कठोर होने के कारण धर्म-धारण के योग्य नहीं रहता। मांस-भक्षण के साथ-साथ मदिरापानादि व्यसन भी लग जाते हैं । मांस-भक्षी इस लोक में सामाजिक एवं धार्मिक पद्धति में निंद्य गिना जाता है। मरने पर नरक में महान् दुस्सह दुःख भोगता है । वहां लोहे के गर्म गोले, संडासियों से मुंह फाड़-फाड़ कर खिलाये जाते हैं तथा दूसरे-दूसरे नारकी जीव, गृद्धादि मांसभक्षी पशु-पक्षियों का रूप धारण करके इसके शरीर को नोचते हैं तथा नाना प्रकार के दुःख देते हैं । अतएव मांस-भक्षण को अति निद्य, दुर्गति एवं दुःखों का दाता जान कर सर्वथा ही त्यागना योग्य है। (३) मधु-भक्षण त्याग-मधु अर्थात् शहद की मक्खियां नाना प्रकार के फूलों का रस चूस-चूस कर लाती हैं और उन्हें उगल कर अपने छत्ते में एकत्र करती हैं। ये वहीं रहती हैं, उसी में संमूर्छन अण्डे उत्पन्न होते हैं । भील-गोंड आदि निर्दयी नीच जाति के मनुष्य उन छत्तों को तोड़, मधु मक्खियों को नष्ट कर, उनके अण्डों-बच्चों को बची-खुची मक्खियों समेत निचोड़ कर इस मधु को तैयार करते हैं । यथार्थ में यह त्रस जीवों के कलेवर (मांस) का पुंज अथवा थूक है। इसमें समय-समय पर असंख्यात त्रस जीवों ३८ आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज अभिनन्दन अन्य । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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