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हिन्दी जैन मक्ति काव्य और कवि
भक्तको भी पूरा विश्वास है कि उसे केवल जिनेन्द्र ही शरण दे सकते हैं। वे केवल शरण ही नहीं, अपितु उसे तार भी देंगे, क्योंकि उनका ऐसा 'विरुद' है । कवि द्यानतरायने लिखा है,
"अब हम नेमिजी की शरन । और ठौर न मन लागत है, छाँ डि प्रभुके शरन ॥ सकल मवि-अध-दहन बारिद विरुद तारन तरन । इन्द्र-चन्द्र-फनिन्द ध्या₹, परम सुख दुख हरन ॥"
कीर्तन
कीर्तनका तात्पर्य है भगवान्को कीत्तिका वर्णन करना। वैष्णव मन्दिरोंमे ताल-मंजीरोंके साथ होनेवाले कोर्तनका रूप जैन मन्दिरोमें कभी प्रचलित नहीं रहा । मध्यकालमे देवस्थानोपर भी जैन भक्त नृत्य और गायनके साथ रास करने लगे थे, किन्तु श्री जिनवल्लभसूरि (वि० सं० ११६७) ने लगुड़ और तालरासोको बन्द कर दिया था, क्योंकि इन रास-कर्ताओकी चेष्टाएँ विटो-जैसी होने लगी थीं। अन्य रास प्रचलित रहे, नृत्य और गायन भी । किन्तु यहां रूप भी वैष्णवमन्दिरोंमें होनेवाले कीर्तन-जैसा नही था। __ काव्यमें कीर्तनको नाम-जप कहते है। जिनेन्द्रके नाम-जपकी महिमा जैन कवियोंने सदैव स्वीकार की है। मानतुंगाचार्यने 'भक्तामरस्तोत्र में लिखा है, "त्वन्नासमन्त्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः सद्यः स्वयं विगतबन्धमया भवन्ति ॥" आचार्य सिद्धसेनने भी 'कल्याणमन्दिरस्तोत्र'मे लिखा है, "आस्तामचिन्त्यमहिमा जिनसंस्तवस्ते नामापि पाति भवतो भवतो जगन्ति ॥” हिन्दीके जैन साहित्यमें तो स्थान-स्थानपर भगवान्के नामकी महत्ताका भावपूर्ण निरूपण है। वैसे तो सूर और तुलसीने भी अपने आराध्यके नाम लेने मात्रसे ही असीम सुख प्राप्त होनेकी बात लिखी है, किन्तु जिनेन्द्र का नाम लेनेसे सांसारिक वैभव' तो मिलते ही है. साथ ही उनके प्रति अनाकर्षणका भाव भी प्राप्त होता है। वैभव मिलता जाये
और उसके साथ ही मन उससे पृथक् होकर वैराग्यकी ओर खिंचता जाये, यह ही जिनेन्द्रके नाम-जपका उद्देश्य है । कवि बनारसीदासके 'नामनिर्णय विधान से ऐसा
१. द्यानतपदसंग्रह, कलकत्ता, पहला पद।