Book Title: Guruvani
Author(s): Padmasagarsuri
Publisher: Ashtmangal Foundation

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Page 6
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsun Gyanmandir %3Dगुरुवाणी आमुख... D - भारत भूमि अनादिकाल से ऋषियों-मुनियों और तपस्वियों की जन्मस्थली रही है. सुधी सन्तों और आचार्यों ने अपनी साधना और अपार ज्ञान-गरिमा से निरन्तर भारतीय संस्कृति को अनुप्राणित किया. मुनियों की इसी मनीषा का प्रतिफल है कि आज भारतीय शाश्वत संस्कृति की अक्षय निधि समग्र विश्व में अपने अनूठे वैशिष्ट्य के लिए सुविख्यात है. प्रसिद्ध संस्कृति चिन्तक डॉ. हर्षनारायण के शब्दों में संस्कृतिर्भारतीया या सा न बहिर्विश्वसंस्कृतेः । देश के इन्हीं मर्मज्ञ आचार्यों ने अपने सतत सर्जनात्मक योगदान से भारतीय वाङमय को समृद्ध बनाया. आचार्यों की इसी परम्परा में आचार्य हरिभद्रसूरि जैसे महान् साधक जैनाचार्य का आविर्भाव हुआ.. ___ बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न आचार्य हरिभद्रसूरि धर्म, दर्शन, कथा-साहित्य, योग, काव्यशास्त्र, ज्योतिष, आगम आदि के अद्भुत विद्वान् थे. संस्कृत, पाली तथा प्राकृत भाषाओं पर उनका अधिकार था और जैनागमिक प्रकरणों पर तो उनके विपुल साहित्य की सरिता प्रवाहित हो उठी. आचार्य श्री ने 'समराइच्चकहा' और 'धूत्तख्खाण' जैसे कथा-ग्रन्थों के साथ-साथ 'अनेकान्तजयपताका' 'षड्दर्शनसमुच्चय' आदि दार्शनिक ग्रन्थों का भी प्रणयन किया. योगसाधना के प्रबल-द्रष्टा आचार्य हरिभद्रसूरि ने 'योगबिन्दु' 'योगदृष्टिसमुच्चय' जेसे अनेकों अद्वितीय योगग्रन्थों को प्रणीत किया. उनकी साधना वस्तुतः एक महान योगी की साधना थी और इसका विलक्षण दिग्दर्शन उनकी प्रभूत आगमिक रचनाओं, जैसे 'अष्टप्रकरण', 'धर्मबिन्दु' आदि में होता है. आचार्य हरिभद्र सूरि द्वारा प्रणीत 'धर्मबिन्दु' उनकी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कृति है. आठ अध्यायों में विभक्त इस गद्यात्मक रचना में उन्होंने जैन धर्म की एक जीवन्त-झाँकी प्रस्तुत की है. सम्पूर्ण ग्रन्थ संस्कृत भाषा में है और इसे सूत्रों की शैली में आचार्य ने अमूल्य रत्नों की तरह पिरोया है. इस कति में जैन धर्म के वास्तविक रूप का प्रतिपादन किया गया है. श्रावक-व्रत, अतिचार, शिक्षा-दीक्षा तथा दीक्षार्थी के गुणों का वर्णन इस पुस्तक का प्रमुख प्रतिपाद्य है. श्री आचार्य हरिभद्रसूरि के कृतित्व पर प्रकाश डालते हुए लिखा गया है कि 'धर्मबिन्दु' पर मुनिचन्द्र सूरि ने 3000 श्लोकों में संस्कृत में टीका लिखी है जिसका इटालियन और गुजराती भाषा में अनुवाद भी उपलब्ध है. आचार्य हरिभद्रसूरि की दृष्टि समन्वयात्मक थी और उन्होंने 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना को जनमानस तक सम्प्रेषित करने का यावत् जीवन स्तुत्य प्रयास किया. 'धर्मबिन्दु' जैसे अनुपम ग्रन्थों की रचना करके उन्होंने अज्ञान के तिमिर में भटकते जागतिक प्राणियों For Private And Personal Use Only

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