Book Title: Gaudi Parshwanath Tirth Author(s): Bhanvarlal Nahta Publisher: Z_Jinvijay_Muni_Abhinandan_Granth_012033.pdf View full book textPage 1
________________ श्री गौड़ी पार्श्वनाथ तीर्थ प्रत्येक धर्म में अपने महापुरुषों के जीवन से संबंधित स्थानों एवं जीवन-प्रसंग की तिथियों को महत्वपूर्ण माना जाता है । जैन-धर्म में भी तीर्थकरों के जन्म, दीक्षा, निर्वाण आदि पंच-कल्याणकतिथियों का बड़ा महत्व है और जहां जहां तीर्थकरों का जन्म, निर्वाण आदि हया उन स्थानों को तीर्थभूमि माना जाता है। उसके पश्चात् कई चमत्कारी मूर्तियां जहां जहां स्थापित हईं उन स्थानों को भी तीर्थों सम्मिलित कर लिया गया। श्री गौड़ीपार्श्वनाथ का तीर्थ भी इसी प्रकार है। गत पांच सौ वर्षों में इस तीर्थ की महिमा दिनोंदिन बढती गई। अनेक ग्राम नगरों में गौड़ी पार्श्वनाथ के मन्दिरों एवं मूर्तियों की स्थापना हुई क्योंकि मूल प्रतिमा जिस स्थान पर थी उसका मार्ग बड़ा विषम था और सबके लिए वहां पहुंचना सम्भव न था। पर इस मूर्ति के चमत्कारों की बड़ी प्रसिद्धि हुई फलतः लोगों की श्रद्धा गौड़ी. पार्श्वनाथ के नाम से बड़ी दृढ़ हो गई। १७ वीं शताब्दि से २० वीं शताब्दि के प्रारम्भ तक कई यात्रीसंघ मूल पार्श्वनाथ की प्रतिमा जहां थी उस पारकर देश में बड़े कष्ट उठाकर के भी पहंचते रहे हैं। पर अब वह तीर्थ लुप्त प्रायः सा हो गया है । इस तीर्थ की सबसे अधिक प्रसिद्धि प्रीतिविमल रचित "गौड़ी पार्श्वनाथ स्तवन" के कारण हुई, जिसकी रचना संवत् १६५० के आस पास हुई । इस स्तवन का प्रारम्भ “वाणी-ब्रह्मा-वादिनी वाक्य से होता है। इसलिए इस स्तवन का नाम "वाणी ब्रह्मा" के पाद्यपद से खूब प्रसिद्ध हो गया और इसे एक चमत्कारी स्तोत्र के रूप में बहत से लोग नित्य पाठ करने लगे। कई लोग बड़ी श्रद्धा-भक्ति से संध्या समय धूप दीप करके इस स्तवन का पाठ करने लगे। उनका यही विश्वास है कि इसके पाठ से समस्त उपद्रव शान्त होते हैं और मंगला-माला या लीला लहर प्राप्त होती है। इस स्तवन में गौड़ी पार्श्वनाथ की प्रतिमा के प्रगट होने का चमत्कारिक वृत्तान्त है । यद्यपि ऐसे और भी कई स्तवन समय समय पर रचे गये पर उनकी इतनी प्रसिद्धि नहीं हो सकी। प्रस्तुत लेख में नेम विजय रचित गौडी स्तवन के आधार से इस तीर्थ की स्थापना का संक्षिप्त परिचय दिया जा रहा है। मुनिश्री दर्शन विजयजी आद्रि त्रिपुटी लिखित “जैन परम्परानु इतिहास" के द्वितीय भाग में गौड़ी तीर्थ का वर्णन भी प्रकाशित हुआ है उसके अनुसार इस प्रतिमा की प्रतिष्ठा १२२८ में पाटन में कलिकाल-सर्वज्ञ प्राचार्य हेमचन्द्र सूरिजी द्वारा हुई थी। पता नहीं इसका प्राचीन आधार क्या है ? त्रिपुटी के मतानुसार झिवाड़े के सेठ गौड़ी दास और सोढाजी भाला अपने यहां दुष्काल पड़ने से मालवे गये और वहां से वापिस आते समय रास्ते में सिंह नाम के कोली ने अचानक सेठ को मार डाला । सेठ मरकर व्यन्तरदेव हया और अपने घर में स्थित पार्श्वनाथ प्रतिमा का महात्म्य बढाने लगा। अधिष्टायक के रूप में इस प्रतिमा द्वारा कई चमत्कार प्रकट किये अतः सेठ गौडी दास के कारण इस पार्श्वनाथ प्रतिमा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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