Book Title: Dwipsagar Pragnapti Sangrahani Author(s): Vijayjinendrasuri Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala View full book textPage 6
________________ अर्हम् पू. आ. श्री विजयसिद्धिसूरिभ्यो नमः श्री श्रुतस्थ विरविरचिता श्रीद्वीपसागरप्रज्ञप्तिसंग्रहणी ( सिरिदीव सागरपण्णत्ति संघयणी ) मानुषोत्तर:पुक्खरवरदीवडुं परिक्खिवइ माणुसोत्तरो सेलो । पायारसरिसरूवो विभयंतो माणुसं लोयं ॥१॥ सत्तरसइबकवीसाइं जोयणसयाई सो समुच्विद्धो । चत्तारि यतीसाइं मूले कोसं च ओगाढो ||२|| दस बावीसाइ अहे विच्छिण्णो होइ जोयणसयाई । सत्त य तेवीसाइं विच्छिण्णो होइ मज्झमि ॥३॥ चत्तारि य चउवीसे वित्थारो होइ उवरि सेलस्स । अड्डाइज्जे दीवे दो वि समुद्दे अणुपरीइ || ४ || तस्सुवरि माणुसनगस्स कूडा दिसि विदिसि होंति । सोलस उ तेसि नामावलियं अहक्क्रम्मं कित्तइस्सामि ॥५॥ G पुवेण तिणि कूडा दक्खिणओ तिष्णि तिण्णि अवरेणं । उत्तरओ तिन्नि भवे चउदिसि माणुसनगस्स ||६|| वेरुलियमसारे खलु त हस्सगब्भे य होंति अंजणगे । अंकामए अरिट्ठे खए तह जायरूवे य ।।७।।Page Navigation
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