Book Title: Dwipsagar Pragnapti Sangrahani
Author(s): Vijayjinendrasuri
Publisher: Harshpushpamrut Jain Granthmala

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Page 14
________________ घइरप वइरसारे कणगे कचगुत्तमे इय । रतप्पभे य रन्नवाऊ सप्पभे य महप्पभे ॥७७।। मणिप्पभे ये मणिहिये रूयगे एग वडिसए । फलिहे अ महाफलिहे हिमवं मंदिरे इय ।।७।। एएसि कडाणं उस्सेहो पंचजोयणसयाई । पंचेव जोयणसए मूलम्मि उ वित्थडा कूडा ॥७९।। तिन्नेव जोयणसए पन्नत्तरि जोयणाई मज्झम्मि । अड्डाइज्जे य दसए सिहरतले वित्थडाकडा ॥८॥ एगं चेव सहस्सं पंचेव सयाई एकसीयाई । मूलम्मि उ कूडाणं स विसेसो परिरओ होइ ।८१॥ एगं चेव सहस्सं छलसीयं चेव होइ सयमेगं । मज्झम्मि उ कडाणं विसेसहीणो परिक्खेवो ॥८२।। सत्तेव जोयणसए एगा नउई च जोयणं होंति । सिहरतले कूडाणं विसेसहीणो परिक्खेवो ॥८३॥ पलिओवमट्टिईया नागकुमारा वसंति एएसु । सेसिं नामावलियं अहक्कम कित्तइस्सामि ।।८।। तिसीसे पंचसीसे य सत्तसीसे महाभुजे । पउमुत्तर पउमरोणे महापउमें चेव वासुगौ ॥८५॥ चिरहियओ मउयहियओ सिरिवच्छो सोथिए इय । संदरनागे विसालक्खे पंडुरंगे पंडुकेसीय ।।८६।।

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