Book Title: Dravyapraman Prakaranam Evam Kshetrasparshana Prakaranam
Author(s): Jagacchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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रत्नत्रयी तुज निर्मल अतिशय, श्रद्धा अपरंपार । रोमरोमजिनशासन वास्युं, क्षणक्षण तास विचार...गुरुजी ! ॥१॥ "अहो ! अहो ! आ शुं मुज मलीयु, अद्भुत अतिशय जहाज । भव सायर उतरवा भवीने, कीधुं श्री जिनवर राज"...गुरुजी ! ॥२॥ ज्ञान दीप हृद्गेहे प्रगट्यो, प्रसों तत्त्वप्रकाश । स्याद्वाद-सिद्धान्त रहस्ये, थयो बहु गुण विकाश...गुरुजी ! ॥३॥ अंग उपांग छेदादिक सूत्रो, जैनागम-विस्तार । भणी भणावी पाम्या तेहनो, भाव विशुद्ध प्रकार...गुरुजी ! ॥४॥ परोपकार निज चित वसावी, करता आतम काम । गुरुए दीधुं श्री 'सिद्धांत-महोदधि-पद ताम...... गुरुजी ! ॥५॥ कर्मग्रन्थ ने कर्मप्रकृति, · शतकादिक जे शास्त्र । सूक्ष्म बुद्धि विण नवि समजाये, अर्थ जेनो तिल मात्र...गुरुजी ॥६॥ तेह तणा रसिया तुमे भारी, श्रम तेहमां बहु कीध ।। एक चित्त थई हार्दने पाम्या, जाणे अमृत पीध...गुरुजी ॥७॥ कर्मशास्त्र-निष्णात थया तुमे, वो जग जशवाद । शिष्यादिक पण बहु शिखवीया, दूर करीय प्रमाद...गुरुजी ॥८॥ कर्मतत्त्वनां शास्त्र रच्यां तुमे, आगमने अनुसार । संक्रमकरण ने कर्मसिद्धि वळी, मार्गणाद्वार उदार...गुरुजी ! ॥९॥ कर्या मनोरथ ग्रंथ रचाववा, शिष्यादिकनी पास । करी प्रयत्न देई प्रेरणा, रचाविया पण खास...गुरुजी ॥१०॥ खवगसेढि ने बंधविहाणं, श्रुतसागरनां मोती । लाखो श्लोक विवेचन जेनु, प्रसरी जग जस ज्योति...गुरुजी ॥११॥
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