Book Title: Dravyapraman Prakaranam Evam Kshetrasparshana Prakaranam
Author(s): Jagacchandrasuri
Publisher: Divyadarshan Trust
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कार्तिक सुदनी चोथ-पंचमी, पूर्व करमना उदये । देह पीडा उपडी बहु भारे, दिनता नहि तुज हृदये ॥५॥ स्वास्थ्य-अस्वास्थ्ये माथ वीताव्या, चार चार समताथी । शिष्य-प्रशिष्यादिक सहु आव्या, तुज चरणे लांबेथी ॥६॥ स्वास्थ्य कईंक तुज ठीक देखातां, विहार करी केई जावे । श्रवण-स्वाध्याय-संशोधन करी तुं, मास त्रणेक वहावे ॥७॥ काल करालने कोण पीछाने, रोग वळी कई वाध्यो । श्वास थयो बहु शभे नहि झट, शुद्ध उपचारे साध्यो ॥८॥ श्वास शम्यो पण स्वास्थ्य न दीसे, देह - शिथिलता आवी । सुणी भावीने दृढ तें करेली, भेद-भावना भावी ॥९॥ समाधिविचार श्री पंचसूत्र ने उपमिति प्रमुखनां मांड्यां । श्रवण अविरत ओक चित्तथी, कर्म कठीन बहु खांड्यां ॥१०॥ चिदानंद छत्रीशी विनति ने स्तवन सज्झायने ध्यावे । 'देह अनेरो आत्म अनेरो' भाव शुद्ध मन भावे ॥ ११ ॥ नित नित निज आतमने निंदे, 'अहो ! आराधी न आणा दोष - विष सेवुं छं निश दिन, किम थाशे उद्धरणा' ॥१२॥ चित्त-स्वास्थ्य तुज उज्ज्वल दीसे, झंखे सतत समाधि । आतम-आराधननो अर्थी, भूली गयो तुं व्याधि ॥१३॥ वैशाखवद अगिआरश आवी, स्वास्थ्य सरस तुज दीढुं । तुज मुखमुद्राने निरखंतां, थयुं अम मनडुं मीठं ||१४|| दिवस गयो ते सुख समाधे, आवी रातडी काळी । आवश्यक उपयोग कर्या पछी तें, वेदना अंदर भाळी ॥ १५ ॥
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