Book Title: Dravyanuyogatarkana
Author(s): Bhojkavi
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 14
________________ ( ११) श्रीमद्जीके उपासकोंने गुजरातमें अमास स्टेशनके पास 'श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम' की स्थापना की थी, जो आज भी उन्हीं की भावनानुसार चलता है । इसके सिवाय खंभात, वडवा, नरोडा, धामण, आहोर, ववाणिया, करविठा, भादरण, ईडर, उत्तरसंडा, नार आदि स्थलोंमें भी इनके नामसे आश्रम तथा मन्दिर स्थापित हुए हैं। श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम अगासके अनुसार ही उनमें प्रवृत्ति है-अर्थात् श्रीमद्जीके तत्वज्ञानकी प्रधानता है । ___ श्रीमद् एक उच्चकोटिके असाधारण लेखक और वक्ता थे। उन्होंने १६ वर्ष और ५ मासकी उम्रमें ३ दिनमें १०८ पाठवाली 'मोक्षमाला' बनाई थी । आज तो इतनो आयुमें शुद्ध लिखना भी नहीं आता, जब कि श्रीमद्जीने एक अपूर्व पुस्तक लिख डाली । पूर्व भवका अभ्यास ही इसमें कारण था। इससे पहले पुष्पमाला, भावना बोध आदि पुस्तकें लिखी थीं। श्रीमद्जी मोक्षमालाके सम्बन्धमें लिखते हैं कि-"इस (मोक्षमाला) में मैंने जैन धर्मके समझानेका प्रयत्न किया है; जिनोक्त मार्गसे कुछ भी न्यूनाधिक नहीं लिखा है। वीतराग मार्गमें आबाल-वृद्धकी रुचि हो, उसके स्वरूपको समझे तथा उसका बोज हृदयमें स्थिर हो, इस कारण इसकी बालावबोधरूप रचना की है।" इनकी दूसरी कृति आत्म-सिद्धि हैं, जिसको श्रीमद्जोने १।। घंटे में नडियादमें बनाया था। १४२ दोहोंमें सम्यग्दर्शनके कारणभूत छह पदोंका बहुत ही सुंदर पक्षपात रहित वर्णन किया है। यह कृति नित्य स्वाध्यायकी वस्तु है। श्रीकुंदकुंदाचार्य के पंचास्तिकायकी मूल गाथाओंका भी इन्होंने अक्षरशः गुजरातीमें अनुवाद किया है, जो 'श्रीमद्राजचन्द्र' ग्रन्थमें छप चुका है। श्रीमद्जीने आनन्दधन चौबीसीका अर्थ लिखना प्रारम्भ किया था। और उसमें, प्रथमादि दो स्तवनोंका अर्थ भी किया था; पर न जाने क्यों अपूर्ण रह गया है। संस्कृत तथा प्राकृत भाषापर आपका पूरा अधिकार था। सूत्रोंका यथार्थ अर्थ समझाने में आप बड़े निपुण थे। आत्मानुभव-प्रिय होनेसे श्रीमद्जीने शरीरकी कोई चाह नहीं रखी। इससे पोद्गलिक शरीर अस्वस्थ हुआ। दिन-प्रतिदिन उसमें कृशता आने लगी। ऐसे अवसर पर आपसे किसीने पछा-'आपका शरीर कृश क्यों होता जाता है ?" श्रीमद्जीने उत्तर दिया 'हमारे दो बगीचे हैं, शरीर और आत्मा। हमारा पानी आत्मा रूपी बगीचेमें जाता हैं, इससे शरीर रूपी बगीचा सूख रहा है।' देहके अनेक प्रकारके उपचार किए गए । वे वढ़वाण, धर्मपुर आदि स्थानोंमें रहे, किन्तु सब उपचार निष्फल गए । कालने महापुरुषके जीवनको रखना उचित न समझा। अनित्य वस्तुका सम्बन्ध भी कहाँ तक रह सकता है ! जहाँ सम्बन्ध वहाँ वियोग भी अवश्य है। देहत्यागके पहले दिन शामको श्रीमद्जीने श्री रेवाशंकर आदि मुमुक्षुओंसे कहा-'तुम लोग निश्चिन्त रहना। यह आत्मा शाश्वत है। अवश्य विशेष उत्तम गतिको प्राप्त होगी। तुम शान्त और समाधिपूर्ण रहना। मैं कुछ कहना चाहता था, परन्तु अब समय नहीं है। तम पुरुषार्थ करते रहना' प्रभातमें श्रीमद्जीने अपने लघु भ्राता मनसुखभाईसे कहा-'भाईका समाधिमरण है । मैं अपने आत्मस्वरूपमें लीन होता हूं।' फिर वेन बोले । इस प्रकार श्रीमदुजाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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