Book Title: Digambaratva Aur Digambar Muni
Author(s): Kamtaprasad Jain
Publisher: Digambar Jain Sarvoday Tirth

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ दिगम्बर अर्थात नग्न रहते हैं। इसके उपासक शाकाहारी एवं रात्रि भोजन के त्यागी होते हैं तथा इसके चिंतन व दर्शन में नर नारायण नहीं बनता है बल्कि आवागमन के चक्कर से मुक्त होकर मुक्त जीव हो जाता है । विश्व सभ्यताओं एवं धर्मो में बैसा चिंतन दर्शन नहीं पाया जाता है । I दिगम्बर मुनिराजों की परम्परा में एक लंबा अंतराल आया लेकिन नये सौ वर्षों के भीतर पुनः दिगम्बर मुनिराजों की प्रभावना ने आकार प्रकार पाना प्रारंभ किया है 1 आचार्य शांति सागर व आचार्य अंकलीकर अर्वाचीन सभ्यता में दिगम्बर मुनिराजों की श्रृंखला में अग्रणी हुये एवम् तेजी से दिगम्बरत्व की अवधारणा ने धर्म व साधना के जगत में प्रवेश करना प्रारंभ कर दिया। विश्व के अनेकों धर्म तथा राजघरानों से दिगम्बर मुनिराजों को स्वीकारने के तथ्य को समझना आज के इस परिवेश में अपरिहार्य हो गया है कि चिंतन की यह धारा एवम् संयम व साधना को दिगम्बरत्व जीवन शैली का प्राचीन इतिहास क्या है एवं आज के परिवेश में उस उपादेयता क्या है । मंगल ग्रह की ओर भागती ये सभ्यता तथा देश भर में तेजी से प्रभावना में साधना रत दिगम्बर साधुगणों का भारतीय सभ्यता में जुड़ना आकलन के योग्य है। आचार्य विद्यानंद व आचार्य विमलसागर जी महाराज सहित तरुण पीढ़ी के युवा तपस्वी आचार्य विद्यासागर जी महाराज जैसे लगभग ३००-४०० दिगम्बर मुनिराजों ने इस आण्विक सभ्यता व बौद्धिक उन्माद से ग्रस्त व्यवस्था के बीच अपनी वीतरागता, दिगम्बरत्व एवं अपरिग्रहिता व शांति, समता, सहिष्णुता सम भाव की अहिंसक शैली ने चुनौती प्रस्तुत कर दी है । यह कृति दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि उक्त परिप्रेक्ष्य में पठन, चिंतन, व मनन योग्य है । लेखक स्वर्गीय बाबू कामता प्रसाद जी ने इस कृति में जो परिश्रम एवं पुरुषार्थ किया गया है वह अतुलनीय है, एवं इसके पुर्न- प्रकाशन हेतु सर्वोदय तीर्थ समिति अमरकण्टक के पदाधिकारी गणों ने जो रुचि प्रदर्शित की है वह प्रशंसनीय है। मैं ज्ञान ध्यान व तप में निरत् मानव उत्क्रांति के महाचेता, आत्म अनुसंधान के वीतरागी यात्री आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज के युगल चरणों में त्रय बार नमोऽस्तु करते हुये भारतीय संस्कृति के प्रागंण में वर्तमान में वीतरागमार्ग की साधना में रतू उन समस्त पुनिराजों व साधुगणों को नमन करता हूं जो मानव की अन्तरंग एवं बहिरंग उत्क्रांति हेतु आत्म कल्याण कैसाथ मानव कल्याण हेतु साधना रत हैं । और क्या कहूँ - क्या लिखूँ ? अजित जैन

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 195