Book Title: Dhyan Darpan
Author(s): Vijaya Gosavi
Publisher: Sumeru Prakashan Mumbai

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Page 8
________________ कुछ समय पश्चात मेरी शादी भी हुई और मैं अमेरिका चली गई । जिंदगी में मुझे जितना सुख और चैन मिला, उतना ही दुःख भी । उस दुःख ने फिर से दबे हुए प्रश्नों को जगाया। फिर से मेरी तलाश शुरू हुई। मैंने प्रथम योग की साधना की, बाद में ध्यान का अभ्यास किया। सभी शास्त्रों में, धर्मों में तलाश जारी रही। उसी उद्देश्य से अनेक परीक्षाएं, अनेक आश्रम धर्मगुरु, प्रवचन, किताब, पंडित मेरे अभ्यास के स्रोत बने । मनन, चिंतन और प्रयोग ही मेरे लक्ष्य बने । जिस प्रकार मक्खन से घी निकाला जाता है, उसी प्रकार यह साधना अनेक वर्षों तक चलती रही । जब सत्य को मैंने जाना, तो प्रवचन के रूप में बाँटना प्रारम्भ कर दिया। इसी सत्य को बाह्य रूप से मोहर मिली पीएच. डी. की पदवी से । जब मैंने जैन-दर्शन में एम.ए. किया था, तब सोचा कि ध्यान के अलावा मेरे शोधकार्य का कोई विषय हो ही नहीं सकता। मेरे जीवन में योग एक वरदान के रूप में आया, यह मैं कदापि भूल नहीं सकती । आध्यात्मिक जगत् की जिज्ञासा और संसार के प्रति वैराग्य मुझे इस ध्यान के विषय की तरफ खींच लाया। इस विषय के अध्ययन से मेरी आत्मा की जो निर्मलता हुई, वह अनमोल है। एक ऐसा अनमोल खजाना मैंने पाया, जो कभी भी लूटा नहीं जा सकता । इस शोधकार्य के हेतु अनेक शिविरों में तथा आश्रमों में रहने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ । अनेक संतों के बीच रहने का तथा अनेक आचार्यों से, साधुओं से विचार- परामर्श करने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ। पिछले अनेक वर्षों से अनेक विद्यालय, अनेक महाविद्यालय, अनेक ग्रंथालय, अनेक तीर्थक्षेत्र, अनेक आश्रम मेरे ठहरने के स्थल बने । आचार्य महाप्रज्ञजी, आचार्य आर्यनंदीजी महाराज, आचार्य विद्यानंदजी महाराज, रमणमहर्षि, विवेकानंद, अरविंद घोष, महेश योगी, श्रीमद् रामचंद्र, ज्ञानेश्वर मठ, प्रेक्षाध्यान केंद्र, 6 / ध्यान दर्पण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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