________________
यह जीव अनंत जन्मों से राग द्वेष आदि कर्मों रूपी आवरणों से आच्छादित हो जाने से चारों गतियों में भ्रमण कर रहा है। जैसेजैसे यह जीव ध्यान की गहराइयों में उतरता चला जाता है, वैसेवैसे कर्मरूपी आवरण स्वयमेव हटते चले जाते हैं और परम ज्योतिर्मय प्रकाशमान पुंज प्रकट होता है। यही जीव का निजी स्वभाव है। यही ध्यान है, यही आत्म-जागरण है।
शुद्धोऽहं....शुद्धोऽह.....शुद्धोऽहं....
एक आत्मार्थी डॉ. विजया गोसावी
ध्यान दर्पण/9
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org