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नहीं है कि ध्यान गृहस्थ को संभव होगा या साधु को? वस्तुतः, निर्लिप्त जीवन जीने वाला व्यक्ति, चाहे वह साधु हो या गृहस्थ, उसके लिए धर्मध्यान संभव है। ध्यान का संबंध चित्तशुद्धि से है। चित्त जितना शुद्ध होगा, ध्यान उतना ही स्थिर होगा।
यद्यपि प्राचीन जैन-आगमों में ध्यान का चतुर्विध वर्गीकरण ही मान्य रहा है, किन्तु जब ध्यान का सम्बन्ध मुक्ति की साधना से जोड़ा गया, तो आर्त और रौद्र-ध्यान को बन्धन का कारण होने से ध्यान की कोटि में परिगणित नहीं किया गया, अत: दिगम्बर-परम्परा की धवला टीका में तथा श्वेताम्बर-परम्परा के हेमचन्द्र के योगशास्त्र में ध्यान के दो ही प्रकार माने गए हैं- धर्म
और शुक्ल। ध्यान के भेद-प्रभेदों की चर्चा से स्पष्ट रूप से यह ज्ञात होता है कि उसमें क्रमश: विकास होता गया है। प्राचीन आगमों स्थानांग, समवायांग, भगवतीसूत्र, ध्यानशतक और तत्त्वार्थसूत्र में ध्यान के चार भेदों की चर्चा की गई है, परन्तु उनमें कहीं भी ध्यान के पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीतइन चार प्रकारों की चर्चा नहीं है।
ध्यान दर्पण/51
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