Book Title: Dhyan Darpan
Author(s): Vijaya Gosavi
Publisher: Sumeru Prakashan Mumbai

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Page 136
________________ एक बार मुनि आर्यनंदी के पास एक गायक दर्शन करने आया। महाराज उस वक्त सामायिक-ध्यान का महत्व बता रहे थे। वह गायक बोला- “महाराज! मैं तो संगीत में ध्यान लगाता हूँ। मुझे उससे ही बहुत शांति प्राप्त होती है। मुझे ध्यान की क्या आवश्यकता है?'' तब आर्यनंदी महाराज बोले- “हे जीव! मैं, बाह्य-वस्तु की बात नहीं कर रहा हूँ। मैं तो आत्मा की बात कर रहा हूँ, जो कि एक आंतरिक घटना है।'' एक पुरानी बात है। जापान का सम्राट झेन मंदिर देखने गया। उसने भिक्षु से कहा- “मुझे यहाँ की मुख्य चीजें ही बताएं।'' भिक्षु ने अनेक कमरे दिखाए और कहा- “यहाँ हम सोते हैं, इस हॉल में हम खाना खाते हैं वगैरह...।'' तब राजा को क्रोध आया और उसने गुस्से में पूछा- “यह हॉल किस कारण से है?'' तब भिक्षु बोला-- “यह ध्यान का कमरा है, यहाँ हम कुछ भी नहीं करते।' सच ही तो है, ध्यान में कोई भी क्रिया नहीं होती है। स्वात्मानं स्वात्मानि स्वेन ध्यायेत्स्वस्मै स्वतोयतः। षट्कारकमयस्तस्माद् ध्यानमात्मैव निश्चयात्।। मैं मेरे में, मेरे द्वारा, मेरे लिए, स्वयं मेरे स्वरूप का ध्यान करता हूँ। ध्यान का फल है- मेरा शांत स्वरूप। ध्यान करनेवाला'मैं', जिसका ध्यान करना है, वह भी 'मैं' ही हूँ। इस कारण 'स्वयं' का अभ्यास आवश्यक है। ___मैं कौन हूँ?' इस प्रश्न का जबाब आपका इस प्रकार भी दे सकते हैं कि 'मैं' इसकी माँ हूँ, पत्नी हूँ, बेटी हूँ, डॉक्टर हूँ, वकील हूँ, पर ये सब बनने के पूर्व क्या आप नहीं थे? 134/ध्यान दर्पण HESHTH ERERA Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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