Book Title: Dharmabinduprakaranam
Author(s): Haribhadrasuri, Jambuvijay, Dharmachandvijay, Pundrikvijay
Publisher: Jinshasan Aradhana Trust

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Page 371
________________ सवृत्तिके धर्मबिन्दौ सप्तमं परिशिष्टम् २९८ । रागाइविजयवीरो देवो तित्थंकरो वीरो ॥११॥ जिणभणियवयणनिरया विरया सव्वेहिं पावठाणेहिं । एत्तोच्चिय पंचमहव्वयाण परिपालणे पवणा ॥१२॥ मणवयणकायगुत्ता पुत्ता सीमंतिणीण सव्वाणं । अनिययविहाररसिया वसिया गुरुपायमूलम्मि ॥१३॥ तित्थयरभणियवयणाणुसारिसद्धम्मदेसणपहाणा । पडिखलियपंचबाणा निरंतरुल्लासिसुहझाणा ॥१४॥ सीलंगमहाभरधारणमि धुरधवलधीरिमं पत्ता । रागाइवेरिवसवत्तिजंतुपरिमोयणे सत्ता ॥१५|| गुणिमणकमलवियासणपयंडमायंडसंनिहसहावा । संपत्ता सुहगुरुणो दुहतरुणो खंडना धीरा ॥१६॥ ता जीव ! तं कयत्थो कयपुन्नो मंगलाण आवासो । माणुसजम्मस्स फलं तुब्भच्चिय करयले चडियं ॥१७॥ जं तुमए रयणत्तयमिणमो संपावियं महाभागा ! । नहि पुनविहीणाणं निहाणलाभो जए होइ ॥१८॥ ता तह करेसु संपइ मोत्तूणं मोहणिज्जमचिरेणं । जह संसारसमुब्भवदुक्खाण जलंजलिं देसि ॥१९॥ रयणायरंमि पत्ते जह पुनो कोऽवि लेइ रयणाई। तह गिण्ह तुम लद्धयमाणुस्सो भावरयणं पि ॥२०॥ जइ कुणासि पुण पमायं जाणंतोऽविहु जिणिंदधम्ममि । ता नूणमयाणुय ! करगयाई सोक्खाइं हारिहिसि ॥२॥ इय चिंतामयसंसिच्चमाणमणनंदणाण जीवाण । अचिरेण सम्गसिवसुहफलाई सिझंति विउलाई ॥२२॥ मुणिचंदसूरिंगणहरविणेयसिरिदेवसूरिवयणाई । मोहंधयाण जंतूण होंति विमलाई नयणाई ॥२३॥ इति।। अथ दोहा ॥२६॥ नाणु चरणु संमत्तु जसु रयणत्तउ सुपहाणु । जय सु मुणिसुरि इत्थु जगि मोडियवम्महरबाणु ॥१॥ उवसमरयणसमुद्दसमु विहलियजणसाहारु । बंदउ मुणिसुरि भवियजण जिम छिंदउ संसार ॥२॥ अमियमहुरदेसणरसिण भवियण रुंखमुलाई । जिंव सिंचइ मुणिचंदह सूरि तिअ तुंवि कुवि काई ॥३॥ वक्खाणंतउ जिणवयणु सिरिमुणिचंद मुणिंद । चउंदिसि मुणिपरिवारियउ, नावइ पुन्निमचंदु ॥४॥ जिणि छट्ठमिमाइतवि सोसीउ इहुं निय देह । वरकरुणाजलणीरुनिहि सो गुरु मुणिधुरिलेहु ॥५।। जो पिहि पक्खसमुद्धरणु, पंचमहव्वयधारु । सो नंदउ मुणिचंदसुरि, जिणी वूहउ तिव भारु ॥६॥ मेरुह जिंव विरु पन्भ गुरु, सायरु जिम्ह गंभीरु । सिरी मुणिसुरि नवनाणनिहि जच्चसुवन्नसरीरु ॥७॥ जं संसारमहाडविहिं निवडियजणसत्थाहु । सो गुरु मुणिसुरि सुमरियई सरणविहीणई नाहु ॥८॥ जिंव तारयहिं पहाणु ससि सेलहिं मेरु पहाणु । तिंव सूरिहिं मुणिचंदमुणि गरुयउ निज्जियमाणु ॥९॥ मोहमहाचलि कुलिससमु सुयजलपूरियऽपारु । सुविहियमुणिसिरि सेहरउ मुणिसुरि बालकुमारु ।।१०।। ता मज्जहि परतित्थिया जा नवि कोइ कहेइ । जिणसासणि उज्जोयकरु मुणिसुरि एत्थु वसेइ ॥११॥ ते धन्ना परि गावडा जहिं विहरइ मुणिसूरि । हरइ मोहु फेडइ दुरिउ संसओ घल्लइ दूरि ॥१२॥ कुंददलुज्जलजसपसरधवलियसयलतिलोय । कम्मपयडिपयडणपवणु मुणिसुरि नमहु असोउ ॥१३॥ जिण कुग्गह फेडिय नरह पयडिवि Jain Education International For Private & Personal use only www.jainelibrary.org

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