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८- बहुत सारे स्थानों पर वचन या संख्या का गलत प्रयोग हुआ है ।
(i) द्वन्द्व समास नियमानुसार नहीं बने हैं ।
ब्रह्मसूर्याणाम् – (४/५६), अष्टमी नवमीषु २७ / २६, इन्द्राग्नि देवस्य (५/१६); रविचन्द्रमा - (४/१७), विष्णु ब्रह्मरण - ( १६ / १३ ) : आदि ।
(ii) क्रिया रूपों का प्रयोग भी बहुधा वचन की दृष्टि से ठीक नहीं हैं । तौ वज्रकाली पृष्ठवान् भार्गवम् – (४ / २८ ) । रुधिरं स्तवन्ति (८२/३२)
घोरः—जग्मुः । (३६/११५) । सा च - पूज्यन्ते । तस्य पत्नी सहस्राणि अष्टौ अष्टो भवेत् किल । ( ६/५७) । (iii) विशेषणों में भी वचनों का गलत प्रयोग हुआ है ।
देव-देवी तवान्तकौ । (१३/७) ।
न संख्या विद्यते तात घातमानस्य दानवान् । ( ७६/१५ 1)
६- शब्द रूपों का निर्माण नियमतः नहीं हुआ है( ५ / १२) पथिम् = पन्थानम् के स्थान पर ।
( ९३ / २० ) विश्वकर्मेण - विश्वकर्मणा के स्थान पर । ( ११ / ३३) होताय - होने के स्थान पर ।
(८८ / ४) अयजाम् — अन्त्यजानाम् होना चाहिये । (११/३२) महाकपालमालाय = मालिने होना चाहिये । ( १२ / ४३ ) अन्याः - अन्ये के स्थान पर ।
( ८० / २४ ) तिस्त्राणाम् - तिसृणाम् के स्थान पर । (१८ / १७) पुष्पान् - पुष्पारण होना चाहिये ।
१० – कारक विभक्तियों का प्रयोग बहुत स्थानों पर उचित नहीं कहा जा सकता है। द्विजोत्तमाय के स्थान पर - वरं दत्तं द्विजोत्तमम् – ( ५८ / १५ ) ।
देव्या षष्ठी के स्थान पर - देवीम् उपासका :- (४३/४१) । पतिहीने सप्तमी के स्थान पर - पतिहीनं न राजते-- (६३/६७) ।
११ -- कृत् प्रत्ययों का भी प्रयोग ठीक नहीं किया गया है ।
भुञ्जयत् ( ८ / ४० ), भ्रमत ८५ / ३८, अनिच्छमान् ( १ / ४३) । भिदित - भिन्न (५२ / ७) ।
१२ -- समास में पूर्वपद एवं उत्तरपद के संयोजन पर उचित ध्यान नहीं रक्खा गया है ।
नृपवाहन महात्मा -- २ / १ ।
पत्रभूर्जेषु
- ( ७ / ८८ ) . - भूर्जपत्रेषु के स्थान पर दिया गया है ।
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